स्वातंत्र्योतर उपन्यास साहित्य में चित्रित नारी जीवन
आभा तिवारी’
प्राध्यापक (हिन्दी)ए शास. दू.ब. महिला स्नात. महाविद्यालय, रायपुर, (छ. ग.)
प्रस्तावनारू
मानव समाज के विविध पक्षों पर प्रकाश डालने के निमित्त पुरुष पात्र की अपेक्षा नारी पात्र का माध्यम अधिक उपयुक्त ठहरता है, क्योंकि मानव समाज के मूल में नारी विद्यमान है। नारी से समाज सृष्टि, प्रेरणा, शक्ति, तुष्टि, प्रेम आदि सब कुछ पाता है। उसके विकास का इतिहास मानव सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास है। मानव समाज के बदलने वाले सामाजिक मूल्यों को आंकने के जितने भी साधन हैं नारी उन सबमें प्रधान है।1 इसलिए हिन्दी साहित्य में नारी जीवन के विविध रूप अंकित हुए। स्वातंत्र्योतर कालखंड के हिन्दी उपन्यासों में नारी अस्तित्व के सूक्ष्म मूल्य बोधों, भावबोधों और आधुनिक चेतना को व्यक्तिगत एवं सामाजिक धरातल पर सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की गई है।
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में लड़के-लड़की का भेदभाव पारिवारिक स्तर से ही प्रारंभ हो जाता है। सामाजिक कुसंस्कारों ने नारी के रूप को इतना अधिक विकृत कर दिया है कि लड़की का जन्म लेना माता-पिता के लिए चिंता का कारण बन जाता है। पुरुष के लिए नारी मन बहलाने का साधन मात्र है। ममता कालिया के उपन्यास ‘बेघर’ की संजीवनी को परमजीत भोग कर छोड़ देता है।2 शिवानी की ‘भैरवी’ अपने पति की दूसरी शादी से हतप्रभ रह जाती है।3 ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ की माधवी स्थिति का विश्लेषण इस प्रकार करती है - ‘‘पुरुष जाति के स्वार्थ और दंभ भरी मूर्खता से ही सारे पापों का जन्म होता है। इसके स्वार्थ के कारण ही उसका अर्धांग नारी जाति पीड़ित है। एकांगी दृष्टिकोण से सोचने के कारण ही पुरुष न तो स्त्री को सती बनाकर ही सुखी कर सका और न वेश्या बनाकर।’’4
‘सागर, लहरें और मनुष्य’ में लेखक ने मछुआरों के जीवन का चित्रण किया है। यहाँ नारी प्रधान समाज होने के बावजूद भी नारी पुरुष के अधीन है। मालिक जैसा पुरुष नारी को यातना देने से नहीं चूकता और अत्याचारों की परिणति दुर्गा की जान लेकर होती है।5 इस संसार में सब कुछ परिवर्तनशील है अगर कुछ भी अपरिवर्तनशील है तो वह है परिवर्तन की अप्रतिहत गति। ठीक उसी प्रकार नारी की भूमिका में चाहे जितने और कैसे भी बदलाव आये हों, किन्तु अगर कुछ नहीं बदला है, तो वह है नारी के प्रति पुरुष का दृष्टिकोण। वह उसे आज भी भोग की वस्तु मानता है।6 ‘डार से बिछड़ी’ की पाशो अपनी माँ से बिछड़ जाने के पश्चात् दर-दर की ठोकरें खाती है। एक अधेड़ व्यक्ति से विवाह कर, फिर विधवा होने के पश्चात् अपने ही भाई की वासना का शिकार बनती है। कमलेश्वर का यह कथन सत्य है कि ‘‘जो संस्कृति नारी को मित्र न मानकर भोग्या माने वो इतिहास में किसी अच्छी परम्परा और संस्कारों का निर्माण नहीं कर सकती।7
नारी जीवन से जुड़ी अनेक समस्याओं को प्रेमचंद युगीन एवं प्रेमचंदोतर उपन्यासकारों ने अंकित कर नारी मन की सूक्ष्मताओं को विश्लेषित करने का सर्वोपरि प्रयत्न किया है। आधुनिक युग के बदलने सन्दर्भों एवं नारी उत्थान की नवचेतना के फलस्वरूप उपन्यासकारों ने नारी के अस्तित्व का मौलिक अन्वेषण भी अपने उपन्यासों में किया है।
नारी समस्याओं में मुख्य समस्या है, विधवा समस्या। समाज में विधवाओं का कोई स्थान नहीं। उन्हें अत्यंत हेय दृष्टि से देखा जाता है, उन्हें पुनर्विवाह की स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। गंगा मैया, मुक्तिपथ, मीठी चुटकी, दुःखमोचन, कोरजा, बूंद और समुद्र आदि उपन्यासों में उपन्यासकारों का ध्यान नारी जीवन के इस पहलू पर भी केन्द्रित हुआ है और उन्होंने इस समस्या का समाधान ढूंढ कर विधवा स्त्री की पुनः प्रतिष्ठा का प्रयास किया है।
दहेज जैसी सामाजिक समस्या के कारण भी नारी को कई यातनायें सहन करनी पड़ती हैं। अधिकतर माता-पिता अत्याधिक धन की चाह करते हैं। नई बहू के लाये दहेज पर ही उनकी नजर रहती हैं। वे बहू की भावनाओं से परिचित नहीं होना चाहते। नारी में स्नेह, ममता और अपनापन होता है। विवाह के उपरांत उसकी इन भावनाओं को क्या केवल दहेज से तोला जाना उचित है ? विवाह में दहेज सबसे बड़ी अड़चन है। इसी कारण सारिका8, गेंदा9, चमेली10 जैसी कई लड़कियों के विवाह नहीं हो पाते। तो कहीं पिता अपनी जमीन गिरवी रखकर दहेज की व्यवस्था करता है।11
दहेज का उचित प्रबंध न कर पाने के कारण पिता को अपनी पुत्री का विवाह दुहाजू लड़के के साथ या ऐसे ही अनमेल विवाह करने के लिए विवश होना पड़ता है। कभी-कभी इस प्रकार के विवाह के लिए सांस्कृतिक मूल्य भी जिम्मेदार रहते हैं। उपन्यासकारों का ध्यान इस समस्या पर भी केन्द्रित हुआ है। नागार्जुन ने निम्न मध्य वर्ग की उन समस्याओं को बड़ी कुशलता से उभारा है, जो अभी तक किन्हीं कारणों से उपेक्षणीय रह गई थीं और जिन्हें नैतिक मूल्यों और सामाजिक दृष्टि से हेय समझा जाता था। रतिनाथ की चाची, नई पौध, बेीज, सोनामाटी, एक औरत की जिंदगी, अकेला पलाश, बूंद और समुद्र आदि उपन्यासों में अनमेल विवाह के दुष्परिणामों का अंकन बड़ी कुशलता के साथ किया गया है।
आर्थिक स्थिति भी कहीं-न-कहीं नारी जीवन की उन्नति में बाधक रही है। समाज में उत्पादन के साधनों पर पुरुष का एकाधिकार रहा है। दूसरी ओर शिक्षा के अभाव के कारण नारी स्वावलंबन की दिशा में अग्रसर नहीं थी, परिणामतः नारी को आर्थिक रूप से पुरुष के ऊपर निर्भर होना पड़ा। परिस्थितियों में हुए बदलाव से महिलाएँ स्वावलंबन की ओर अग्रसर तो हुई किन्तु उन्हें बाह्य जगत् में अनेक कठिनाईयों का सामना भी करना पड़ा। धन की कमी पुरुष एवं नारी दोनों को विचलित करती है क्योंकि आज के युग में धन ही सब कुछ है। इसके अभाव में व्यक्ति अपने को निस्सहाय महसूस करता है। इन्हीं स्थितियों का वर्णन हमें स्वातंत्र्योतर उपन्यासों में दिखाई देता है। आर्थिक विपन्नता के कारण नारी अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाती। आर्थिक विपन्नता मनुष्य को चोरी के लिए विवश करती है। ‘चैथी मुट्ठी’ की मोतिया मस्तानी12 ने भी यही किया। आर्थिक परिस्थितियां ही नारी को वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर करती है। जब तक नारी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न हो इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। ‘बूंद और समुद्र’ उपन्यास में लेखक ने आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र न होने की स्थिति में नारी के कष्टों का वर्णन किया है। यही स्थिति ‘घरौंदे’ में इस प्रकार चित्रित है - ‘‘घर की बेजान चीजों की स्वामिनी और जीवित मनुष्यों की दासी। आर्थिक परतंत्रता से उसे बांध दिया गया था। क्या जीवन है जब अपने पर नहीं दूसरों पर गर्व किया जाये ? जिंदा रहना क्या कोई बात है ? कुत्ता जंजीर से बांधकर भूखा रखा जाये तो वह कैसा भी मांस खा सकता है।’’13
नारी को इन विषमताओं से यदि उबरना है तो उसे स्वावलंबी होना पड़ेगा। पर स्वावलंबन के बाद भी वह पूर्ण स्वतंत्र नहीं है - ‘‘घर में यदि नौकरी करने वाली एक युवा लड़की हो, पिता वृद्ध हों, तीन पढ़ने वाले छोटे-छोटे बच्चे हों, पास का पैसा बीते युग की कहानी बन चुका हो तो ऐसी स्थिति में कमाऊ बेटी के घर से चले जाने पर घर का खर्च कैसे चलेगा।’’14 इसी प्रकार ‘पचपन खंभे लाल दीवार’ की सुषमा अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय लेती है।
पर फिर भी समाज में अपनी स्थिति मजबूत बनाने के लिए नारियों को आर्थिक रूप से सशक्त बनना पड़ेगा और समाज और उसकी व्यवस्थाओं को तोड़कर एक ऐसा समाज बनाना पड़ेगा, जिसमें विवाह, नैतिकता, कलंक और व्यभिचार की मर्यादाएं बदल जायें।
यह सत्य है कि समाज की निरंतर परिवर्तित व्यवस्थायें व्यक्ति को प्रभावित करती है। हर पल बदलते सामाजिक स्वरूप, नयी विचारधारायें, राजनीतिक गतिविधियों ने नारी को भी जाग्रत किया और अस्तित्व बोध कराने में अहम भूमिका निभाई। परिवर्तित चेतना शक्ति के बल पर नारी ने स्वयं को आजाद करने का ठान लिया। अब वह कई बंधनों से मुक्त होना चाहती थी। पुरुषों को नारी का वह परिवर्तित रूप देखकर आश्चर्य तो हुआ, पर उन्हें इसे स्वीकारना भी पड़ा, क्योंकि यह युग की मांग थी। नारी की चेतना शक्ति साहित्यकारों के लिए नई उम्मीदें लेकर आई। अब साहित्य नारी को देवी नहीं सामान्य चेतना सम्पन्न व्यक्ति मानने लगा और उसके सर्वांगीण विकास और स्वतंत्रता के लिए पहल प्रारंभ हुई। प्रेमचंद इस दिशा में अग्रणी थे। उन्होंने अपने साहित्य में न केवल नारी जीवन से संबंधित समस्याओं का चित्रण किया अपितु इन समस्याओं से निपटने के लिए नारी को प्रेरित भी किया। प्रेमचंद का साहित्य परवर्ती साहित्यकारों के लिए मार्गदर्शक बना।
इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि बदलते समाज को पहचानने, समयानुसार अपने को ढालने और चेतना शक्ति जाग्रत होने में अहम् भूमिका शिक्षा की है। समाज सुधारकों ने एवं नारी मुक्ति आंदोलनकर्ताओं ने भी स्वीकार किया कि शिक्षा से बढ़कर नारी स्वतंत्रता के लिए कोई अस्त्र नहीं है। इस कारण शिक्षा प्राप्ति द्वारा चेतन नारी का चित्रण साहित्य में हुआ है।15 यशपाल ने अपने उपन्यासों दादा कामरेड, मनुष्य के रूप, देशद्रोही आदि में नारी शिक्षा को चित्रित कर उनमें स्वतंत्र होने की प्रबल इच्छा का वर्णन किया। इसी प्रकार रांगेय राघव के ‘घरौंदे’ की लवंग, लीला, रानी और इंदिरा, इलाचंद जोशी के ‘निर्वासित’ की रमा, नीलिमा और प्रतिमा, जैनेन्द्र के ‘कल्याणी’ की कल्याणी, ‘सुनीता’ की सुनीता और ‘त्यागपत्र’ की मृणाल शिक्षित नारी पात्र हैं।
नारी यदि चेतना युक्त हो तो वह अपने आस-पास के परिवेश को भी जाग्रत करने का कार्य करती है। ‘बीज’ उपन्यास की उषा के समान हर परिस्थितियों का धैर्यपूर्वक सामना करती है। ‘नागफनी का देश’ की मदालसा के समान समाज से टकराने की हिम्मत रखती है। ‘दादा कामरेड’ की शैल के समान अपनी बात स्पष्ट रूप से सबके सामने रखने का साहस उसमें है। आज के उपन्यासों में चित्रित नारी कह सकती है कि मैं उन औरतों में से नहीं हूँ जो अपने व्यक्तित्व का बलिदान करती घूमती है। चंद्रकिरण सौनरेक्सा के उपन्यास ‘चंदन चांदनी’ की गरिमा प्रगतिशील और स्वतंत्र विचारों की युवती है। वह पुरातन मान्यताओं को स्वीकार नहीं करती। रजनी पनिकर ने ‘काली लड़की’ उपन्यास में नारी के प्रगतिशील रूप का चित्रण कर यह बताना चाहा कि आज नारी अपने अधिकारों से भी परिचित है।
उषा देवी मित्रा के उपन्यास ‘नष्ट नीड़’ की सुनंदा अपने सम्मान की रक्षा करती है और नारी स्वतंत्रता को बल प्रदान करती है। निरुपमा सेवती के उपन्यास ‘मेरा नरक अपना’ की नायिका अमला आधुनिक एवं प्रगतिशील विचारों वाली है। ‘रुकोगी नहीं राधिका’ की राधिका चेतना सम्पन्न नारी है। वह नारी स्वतंत्रता की पक्षधर बनकर उभरी है। मैत्रेयी पुष्पा के ‘विजन’ की आभा हर अन्याय का सामना करने में सक्षम है। कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रो मर जानी’ से नारी का एक स्वच्छंद रूप सामने आया। मित्रो समाज की कुरीतियों के दबाव में अपना जीवन नष्ट करने या नैतिकता की कोरी चादर ओढ़ने के खिलाफ है। रुबी गुप्ता के चरित्र द्वारा अलका सरावगी ने समाज सेविका और अपमान, अन्याय को न सहन करने वाली नारी को चित्रित किया है।
इस प्रकार आज की नारी मुक्ति की अभिलाषी है। पर मुक्ति किससे - ‘‘मुक्ति चाहती है हम धन के असम और अनियंत्रित वितरण से। मानव द्वारा मानव के नारकीय शोषण से, दुःख, गरीबी और बढ़ती बेकारी से। युगो बंधे, सड़ते, विषमता के दाह से।’’16
वस्तुतः नारी स्वतंत्रता से तात्पर्य है नारी के स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व की मान्तया। साथ ही उसके प्रति एक उदार, आदरपूर्वक, शुचितामय दृष्टिकोण जो अधिक स्वस्थ, संयत और मानवीय हो। नारी का केवल स्वतंत्र निर्णय ले सकना या आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाना ही सब कुछ नहीं है। सही अर्थों में नारी को सम्मानजनक स्थिति तब प्राप्त होगी जब उसके प्रति समाज का दृष्टिकोण और मानसिकता में परिवर्तन होगा। आज के उपन्यासों में नारी जीवन से संबंधित यही दृष्टिकोण मुखर हो रहा है। यह एक नये समाज की रचना के लिए शुभ संकेत है।
संदर्भ -
1ण् सिंह डाॅ. त्रिभुवन, हिन्दी उपन्यास और यथार्थवाद, पृ. 394
2ण् कालिया, ममता, बेघर, पृ. 80
3ण् शिवानी, भैरवी, पृ. 98
4ण् नागर, अमृतलाल, नाच्यो बहुत गोपाल, पृ. 126
5ण् आलोक डाॅ. अशोक कुमार, फणीश्वरनाथ रेणु: सृजन और संदर्भ, पृ. 371
6ण् भट्ट, उदयशंकर, सागर, लहरें और मनुष्य, पृ. 11
7ण् कमलेश्वर, कितने पाकिस्तानी, पृ. 300
8ण् भट्ट, उदयशंकर, सागर, लहरें और मनुष्य, पृ. 180
9ण् मिश्र, रामदरश, पानी के प्राचीर, पृ. 107
10ण् मिश्र, रामदरश, पानी के प्राचीर, पृ. 214
11ण् सिंह, शिवप्रसाद, अलग-अलग वैतरणी, पृ. 275
12ण् मटियानी, शैलेश, चैथी मुट्ठी, पृ. 75
13ण् राघव, रांगेय, घरौंदा, पृ. 177
14ण् कालिया, ममता, बेघर, पृ. 58
15ण् अग्रवाल, बिन्दु, हिन्दी उपन्यास में नारी चित्रण, पृ. 143
16ण् वर्मा, भगवती चरण, त्रिपथगा, पु. 74
Received on 02.11.2010
Accepted on 15.11.2010
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Research J. of Humanities and Social Sciences. 1(3): Oct.-Dec. 2010, 77- 79