जनजातियों का व्यवसाय, उपभोग एंव जीवन स्तर
(मण्डला जिले के संदर्भ में)
शैलप्रभा कोष्टा
सहायक प्राध्यापक (अर्थशास्त्र)ए अर्थशास्त्र विभाग
हितकारिणी महिला महाण्ए जबलपुर
जनजातियों से आशयः-
जनजाति का अर्थ आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र ऐसा जन समूह जो एक भाषा बोलता है तथा बाह्य आक्रमण से सुरक्षा करने के लिए संगठित होता है। वर्तमान आधुनिक विश्व मंे आज भी महाद्वीपों के दुर्गम क्षेत्रों में ये मानव समूह हजारों वर्षो से शेष विश्व की सभ्यता से अलग पहचान बनाए हुए है जिन्हें आधुनिक समाज की अर्थदृष्टि अनुत्पादक मानती है।
गिलिन के अनुसार ‘‘जनजाति किसी भी ऐसे सामान्य भू-भाग पर निवास करती हो, सामान्य भाषा बोलते एवं सामान्य संस्कृति का व्यवहार करते है।’’ अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने किसी भी देश के मूल निवासियांे को आदिवासी शब्द से सम्बोधित किया है।’’ भारत में भी समय-समय पर ऐसे समुदायों को जो आधुनिकता से दूर अपनी पुरानी मान्यताओं के साथ जंगलों में जीवन व्यतीत कर रहे है आदिवासी कहा गया है मेरे मतानुसार’’ आदिवासी शब्द के नाम से हमें एक ऐसी जनजाति का बोध होता है जो सामाजिक, आर्थिक, मानसिक और राजनैतिक दृष्टिकोण से अत्यन्त पिछड़ी हुई है यों कहिए कि इनमें चेतना का सर्वथा अभाव है। एक ऐसा समुदाय जो वर्तमान विकास से दूर ऐसे स्थानेां पर निवास करते है जो उनके जीवन का आधार है वे समूहों में अपने सामाजिक नियमों का निर्वाह करते हुए अपने आश्रयदाता (वन) के साथ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े है परन्तु समय एवं परिस्थिति के अनुसार विकास की धारा से मिलना चाहते हैं।
जनजातियों की विशेषताएँ:-
ये प्रायः सभ्य जगत से दूर दुर्गम स्थानों मंे निवास करते है।
ऽ इनकी अपनी एक जनजातीय भाषा होती है।
ऽ इनके समूह का अपना नाम पारस्पारिक व्यवहार के नियम और निषेध होते है।
ऽ इनका आदिम धर्म होता है।
ऽ इनकी अपनी सामान्य संस्कृति व सुरक्षात्मक संगठन होते हैं।
ऽ इनका एक स्वतंत्र संगठन होता है वे जनजातीय व्यवसायों को अपनाते है।
ऽ एक जनजाति अनेक परिवारों के समूहों का संकलन होता है।
ऽ इनका स्वभाव सीधा-सादा एवं भोला-भाला होता है।
ऽ पिछड़ापन ही इनकी प्रमुख विशेषता है।
अध्यन का उद्देश्य:-
1. अध्यायित क्षेत्र के जनजातीय रोजगार के प्रकारो का अध्ययन करना।
2. प्रवसन के मुख्य कारणों को चिन्हित करना।
3. जनजातियों की मुख्य विशेषताओं का अध्ययन करना।
4. जनजातीय जीवन स्तर का आंकलन करना।
अध्ययन का क्षेत्रः-
प्रस्तुत शोध पत्र हेतु अध्ययन का क्षेत्र मण्डला जिले के कुछ ग्रामों तक सीमित है। जहां से अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति एवं अन्य समुदाय के करीब 304 परिवारों को अध्ययन हेतु चयनित किया गया है।
अध्ययन की अवधिः- अध्ययन हेतु वर्ष 2008-2009 का चयन किया गया है।
अध्ययन परिकल्पना:-
1. जनजातीय जीवन स्तर निम्न एवं रूढ़िवादी है।
2. प्राप्त आय, उपभोग हेतु पर्याप्त नहीं है।
अध्ययन विधिः-
प्रस्तुत शोध पत्र हेतु विषय वस्तु प्रारम्भिक, द्वितीयक समंको एवं तथ्यों पर आधारित है शोध विषय से संबोधित ऐसे आंकड़े जिनका प्रकाशन किसी स्तर पर नहीं हो सकता है उनका संकलन व्यक्तिगत पहुॅच की सीमा के भीतर करने का प्रयास किया गया है, जानकारी हेतु समस्त इकाइयों का अध्ययन करके समग्र में से कुछ ऐसी इकाइयों का चयन किया गया जो इस समग्र का प्रतिनिधित्व कर रही है।
प्राथमिक समंको के संकलन के लिये गांवो का चयन दैव निदर्शन पद्धति के द्वारा किया है परन्तु इस पद्धति से अधिक जनजातियों की जानकारी का संकलन और उसके निष्कर्ष तक पहुंचने की प्रक्रिया असंभव तो नहीं अपितु कठिन अवश्य है कुल 18 ग्रामों के 304 परिवारों पर यह अध्ययन किया गया है।
जनजातीय एवं रोजगार (व्यवसाय)ः-
जनजातियेां की अर्थव्यवस्था उन्नत समाज की अर्थव्यवस्था से नितान्त भिन्न होती है इनकी निजी आवश्यकताएं बहुत सीमित होती है इन सीमित आवश्यकताओं के लिए प्रधानतः प्रकृति पर निर्भर रहते है। वन न केवल इनके वंाछित प्रिय निवास क्षेत्र है बल्कि आजीविका के क्षेत्र भी रहे हैं। अब इस स्थिति मंे अमूल्य परिवर्तन हो गया है। हमारी आधुनिक अर्थव्यवस्था में न केवल आदिवासियों के असीमित अधिकार को समाप्त कर दिया। सिमटते हुए वनों और वन पर निरंतर बढ़ते प्रतिबंधो एवं दबावों के कारण आदिवासी लोग कृषि, मजदूरी और पशुपालन की ओर मुड़े ये जनजातियों इतनी निर्धन है। कि इनके पास स्वयं की कृषि भूमि तक नहीं है और जिनके पास कृषि भूमि है भी तो वह बहुत कम उपजाऊ है जिसमें मोटा अनाज का ही उत्पादन हो पाता है विकल्प के रूप में केवल मजदूरी ही जनजातियांे का आर्थिक स्त्रोत है। वनों से प्राप्त लघु वनोपज एवं जड़ी-बूटी का संग्रह बहुत थोड़ा सा आर्थिक स्त्रोत है जो जीवन यापन के लिए पर्याप्त नहीं है।
तालिका क्रं. 1 सर्वेक्षित परिवार का व्यवसाय
क्रं. व्यवसाय का प्रकार अनु. जनजाति (संख्या) अनु. जाति (संख्या में) अन्य
(संख्या में) योग
1 2 3 4 5 6
1 कृषि 33 06 04 43 (14.34)
2 मजदूरी 174 21 9 204 (67.5)
3 स्वयं का व्यवसाय 8 2 6 16 (5.26)
4 शासकीय नौकरी 8 2 3 13 (4.27)
5 अशासकीय नौकरी 17 5 6 28 (9.21)
योग 240 36 28 304
स्त्रोतः- प्राथमिक सर्वेक्षण पर आधारित समंक
नोट:- कोष्ठक मंे दर्शाये गए आंकड़े प्रतिशत में है।
उपरोक्त तालिका क्रं. 1 से स्पष्ट है कि सर्वेक्षित परिवारों में मजदूरी करने वालों का प्रतिशत सबसे अधिक (67.12) है वही शासकीय नौकरी में इनका प्रतिशत सबसे कम 4.27 है। जिसका मुख्य कारण ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अभाव है।
रोजगार स्त्रोतः- अध्ययन क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है अधिकांश ग्रामीण जनसंख्या के निवास स्थान पर पर्याप्त रोजगार स्त्रोत उपलब्ध नहीं है परिणामस्वरूप ग्रामीण परिवारों को जीविका चलाने के लिए कभी-कभी गाॅव के बाहर भी जाना पड़ता है। बढ़ती हुई आबादी के कारण कृषि के ऊपर बोझ बढ़ा है। भूमि हस्तान्तरण एवं प्रत्येक पीढ़ी में भूमि के विभाजन के कारण भूमिहीनता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। अब कम भूमि मंे कृषि कार्य के लिये वर्ष भर भूमि स्वामी को काम उपलब्ध नहीं हो पाता है। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति तथा अन्य वर्ग के ग्रामीणों को रोजगार की तलाश में गांव के बाहर जाना पड़ता है।
तालिका क्रं. 2 रोजगार प्राप्ति स्त्रोत (न्यादर्श परिवारों में)
क्रं. रोजगार स्त्रोत रोजगार प्राप्त परिवार (संख्या में) प्रतिशत
1 गाॅव में 275 90.46
2 गाॅव के बाहर 29 9.54
योग 304 190.00
प्रवसनः- जनजातीय श्रमिकों को प्रवसन की समस्या का सामना करना पड़ता है जनजातियों के पास उतनी भूमि नहीं है जिससे उनको सालभर रोजगार मिल सके तथा खाद्य समस्या का समाधान हो सके। उनकी भूमि भी इस प्रकार की है जिससे अधिक पैदावार नहीं लिया जा सकता है। कृषि कार्य से बचे समय में जंगल इन लोगों को काम और मजदूरी प्रदान करता है परन्तु जंगली उत्पादों में कमी तथा वन नीति के कारण इन जनजातीय परिवारों को समय एवं आवश्यकतानुसार काम करने के लिए गांव से बाहर जाना पड़ता है न्यादर्श परिवारों में प्रवसन के निम्न कारण इस प्रकार हैः-
तालिका क्रं0 3 प्रवसन का कारण
क्रं. प्रवसन का प्रकार व्यक्तियों की संख्या प्रतिशत
1. मौसमी 28 9.21
2. माहवारी 21 6.91
3. पाक्षिक 11 3.63
4. आवश्यकतानुसार 192 63.16
5. सूखे के समय 31 10.19
6. वार्षिक 19 4.27
7. अन्य 8 2.63
योग 304 100.00
स्त्रोतः- प्राथमिक सर्वेक्षण पर आधारित समंक
ज्यादात्तर न्यादर्श परिवारों द्वारा आवश्यकतानुसार प्रवसन किया जाता है, फिर अन्य कारणों से यें परिवार गांव से बाहर जाना चाहते है। वास्तव में इन्हें वर्षभर मंे कुछ दिनों के लिए ही गांव में रोजगार उपलब्ध होता है और इसी कारण इन्हें रोजगार हेतु बाहर जाना पड़ता है।
जनजातियों की उपभोग प्रवृत्तिः- आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वस्तुओं के उपयोग (इस्तेमाल) को ही साधारण भाषा मं उपभोग कहा जाता है। वास्तव में उत्पादन, उपभोग के लिए ही किया जाता है उपभोग के पश्चात् शेष को जब संग्रहित किया जाता है तो इस संग्रह (बचत) की संज्ञा दी जाती है। इन न्यादर्श परिवारों की उपभोग प्रवृत्ति के अध्ययन के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि इनकी आर्थिक स्थिति कैसी है क्योंकि आर्थिक स्थिति ही हमारे रहन-सहन के स्तर, उपभोग एवं बचत के स्तर को निर्धारित करती है।
तालिका क्रं. 1 से स्पष्ट है कि सबसे अधिक 67.12 प्रतिशत न्यादर्श परिवार मजदूरी का कार्य करते है, इनकी उपभोग प्रवृत्ति उनको मिलने वाली आय पर निर्भर करती है अतः इन न्यादर्श परिवारों को मिलने वाली आय का विवरण इस प्रकार है।
तालिका क्रं.-4 परिवार की कुल मासिक आय
क्रं. न्यादर्श परिवारों की मासिक आय (रूपये) न्यादर्श परिवारों की संख्या प्रतिशत
1 0-1000 रू. के बीच - -
2 1000 - से 2000 रू. के बीच 204 67.12
3 2000 - 3000 रू. के बीच 43 14.14
4 4000 - 5000 रू. के बीच 16 5.26
5 5000 रू. से अधिक 28 9.21
6 अन्य 13 4.27
योग 304 100.00
स्त्रोतः- प्राथमिक सर्वेक्षण पर आधारित समंक
उपरोक्त तालिका क्रं. 5 से स्पष्ट है कि इन परिवारों का उपभोग व्यय बहुत ही कम है ये स्वास्थ्य जैसी महत्वपूर्ण मद पर अपनी आय का मात्र 2 प्रतिशत या उससे भी कम व्यय करते है।
सुझावः-
जनजातीय परिवारों की आर्थिक स्थिति ठीक करने हेतु क्षेत्र मंे पाये जाने वाले संसाधनों व कच्चे माल पर आधारित परम्परागत व्यवसायों को विकसित करने के लिए कुशल, अनुभवी व जनजातीय समस्याओं से परिचित प्रशिक्षकों द्वारा समुचित प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित किये जाने चाहिए।
ऽ सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा जनजातियों में जागरूकता का विकास करना चाहिए ताकि किसी भी प्रकार के शोषण से ये अपने आप को बचाते हुए अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर अपने जीवन स्तर को बेहतर कर पाये।
ऽ जनजातीय समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता, अंधविश्वास व अज्ञानता को दूर करने के लिये ऐसी शिक्षा पद्धति का विकास किया जाना चाहिये जो उनकी मूल संस्कृति के अनुरूप हो तथा रेाजगार व आय वृद्धि में सहायक हैं।
ऽ क्षेत्र में आधारभूत सुविधाओं के विस्तार को बढ़ावा देना चाहिए ताकि विकास की राह पर तेजी से बढ़ा जा सकें।
ऽ वन-विभाग द्वारा चलाई जर रही विभिन्न योजनाओं में से एक योजना लघु वनोपज संग्रह में स्थानीय लोगों (वनजातीय) का सहयोग निर्धन बेरेाजगार आदिवासियों को अल्पकालिक ही नहीं बल्कि दीर्घकालिक रोजगार की व्यवस्था कर सकेगी।
तालिका क्रं. 5 न्यादर्श परिवारों की मासिक आय एवं उपभोग व्यय
समुदायगत विवरण मासिक आय (रूपये में) व्यय की मदें (रूपयों में)
खाद्यान्न फल मदिरा मनांेरजन तीज त्यौहारों वस्त्र स्वास्थ्य अन्य योग
60ः 4ः 8ः 2ः 9ः 5ः 2ः 10ः
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
अनुसूचित जनजाति 4550 2730 182 364 91 40950 227ण्50 91 455 4550
अनुसूचित जाति 6200 3720 248 496 124 558 310 124 620 6200
अन्य समुदाय 8930 5358 357.20 714ण्20 178ण्60 803.70 446ण्5 178ण्60 893 8930
निष्कर्षः-
जनजातीय समुदाय की निजी आवश्यताएँ यद्यपि बहुत सीमित होती है और ये अपनी जरूरतों को अपने आश्रयदाता (जंगलों) से पूरा भी कर लेते थे परन्तु आधुनिक अर्थव्यवस्था ने इनके अधिकारों को सीमित ही नहीं बल्कि खत्म कर दिया फलतः उन्हें अपने जीवनयापन हेतु अन्य साधनों का सहारा लेना पड़ रहा है। मजदूरी, कृषि आदि कार्य से मिलने वाली आय इतनी कम है कि इन्हें रोटी, कपड़ा आवास, जैसी समस्याओं से जुझना पड़ रहा है। जिसका प्रभाव इनके स्वास्थ्य एवं रहन-सहन केा प्रभावित कर रहा है चिन्ता इस बात की है कि इतने विकास के बाद भी ये अभी दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पा रहे है। ऐसी स्थिति मंे शासन द्वारा वृहत् स्तर पर विकास कार्यक्रमांे को इस क्षेत्र में लागू करने की जरूरत है ताकि बेरोजगार जनजातीय समुदाय रोजगार प्राप्त कर एक सम्मानपूर्ण जीवन यापन कर सकें।
संदर्भ ग्रन्थ सूचीः-
1. ‘‘म0प्र0 के आदिवासी बाहुल्य मण्डला जिलें में जनजातीय विकास का अध्ययन’’ एम.एल. पटेल प्लानिंग स्ट्राटिंग फाॅर ड्राइबल डेव्हल्पमेंट 1984 पृष्ठ 18
2. ‘’भारत के आदिवासी’’- पी.आर.नायडू राधा पब्लिकेशन्स नई दिल्ली 2002 पृष्ठ 108
3. ‘‘इश्यू इन ड्राइबल डेव्हल्पेमेंट’’ राय एवं बी.के. बर्मन वाव्यूम प्प् पृष्ठ नं. 20
4. ‘भारतीय जनजातियां’- हरिशचन्द्र उप्रेती, सामाजिक विज्ञान, हिन्दी रचना केन्द्र, राजस्थान विश्व विद्यालय 1970 पृष्ठ 1
5. ‘‘दी रेसेज एंड कल्चर्स आॅफ इंडिया’’ - मजूमदार तथा मदन, एन्थ्रोपोलाॅजी 1981 पृष्ठ 153
6. ‘‘आदिवासी समाज मंे आर्थिक परिवर्तन’’- राकेश कुमार तिवारी, नार्दन बुक सेन्टर नई दिल्ली 1990 पृष्ठ 63
7. इकोनाॅमिक डेमोग्राफिक चेन्ज इन दा डाइबल सोसायटी आॅफ त्रिपुरा 2008 नेशनल सेमीनार मंे प्रस्तुत पेपर
8. ‘‘जनजातियों में व्यावसायिक परिवर्तन का उनके जीवन पर प्रभाव’’ - मनोज कुमार साहू द्वारा प्रस्तुत शोध पत्र ‘‘पर्यावरण प्रबंध जर्नल मंे 1995 पृष्ठ 18-20
9. मध्यप्रदेश के आदिवासी आज कल - श्यामाचरण दुबे आदिवासी अंक, प्रकाशन पुराना सचिवालय दिल्ली 1996
10. आदिवासी कार्यालय कलेक्ट्रट मण्डला द्वारा प्रकाशित प्रतिवेदन।
11. म0प्र0 के अनुसूचित जनजाति कल्याण कार्यक्रम विभाग-आदिम जाति एवं हरिजन कल्याण विभाग अक्टूबर 2001।
Received on 09.08.2011
Accepted on 12.09.2011
© A&V Publication all right reserved
Research J. Humanities and Social Sciences. 2(3): July-Sept., 2011, 142-144