श्री नरेश मेहता के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विविध पक्षों का सर्वेक्षण
किरण वर्मा1 एवं आभा तिवारी2
1शोध छात्रा, हिन्दी, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर
2प्राध्यापक, हिन्दी, शा.दू.ब.म.स्ना. महाविद्यालय, रायपुर
सार-संक्षेपः
साहित्यशास्त्र में उपन्यास और कहानी के छः तत्व माने गये हैं। किसी उपन्यास की समीक्षा करते समय या उसके विषय में बातें करते समय इनका विवेचन काम में आता है, ये तत्व - कथानक, पात्र, संवाद, देशकाल, भाषा और शैली तथा उद्देश्य हंै। कथानक उस सामग्री का नाम है जिसे लेखक जीवन से चुनता है, जिसे पात्र, क्रिया व्यापार और घटनाओं के संबंध में निरूपित किया जाता है। पात्र या चरित्र वे व्यक्ति हैं, जिनके द्वारा घटनाएँ घटती हैं। उपन्यास जगत में पात्रों के मध्य बातचीत को कथोपकथन या संवाद कहते हैं। देशकाल से अभिप्राय उस काल और स्थान विशेष से रहता है, जिसका आधार उपन्यास का कथानक अथवा वस्तु-विन्यास ग्रहण करता है। भाषा और शैली उपन्यासकार की अभिव्यंजना पद्धति होते हैं तथा रचनाएँ किसी-न-किसी उद्देश्य की पूर्ति अवश्य करती हैं।
”उपन्यास के विवेचन में उपन्यास की प्रविधि या शिल्प (टेकनीक), कथावस्तु (प्लाट), चरित्र-चित्रण, संवाद, शैली, देशकाल वातावरण, उद्देश्य आदि शब्द औपन्यासिक अवधारणाएँ हैं, जिनके निश्चित अर्थों के अभाव में उपन्यास का व्यवस्थित संतुलित और स्पष्ट विवेचन संभव नहीं है।“
नरेश मेहता उपन्यासकारों के रूप में पर्याप्त चर्चित एवं ख्यातिलब्ध रहें हैं। नरेश मेहता आधुनिक उपन्यासकारों में विशेष महत्व रखते हैं, वे व्यक्तिवादी उपन्यासकार हैं। अपनी कई विशेषताओं के कारण श्री नरेश मेहता ने नई पीढ़ी के उपन्यासकारों में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सन् 1950-60 तक का हिन्दी गद्य रूमानी मानसिकता से मुक्ति और आधुनिकता के स्वीकार की संक्रमण कालीन चेतना का गद्य है तथा नरेश मेहता में इसी काल की चेतना परिलक्षित होती है।
‘यह पथ बन्धु था’ नरेश मेहता का सन् 1962 में प्रकाशित वृहद् आकार का उपन्यास है। यह एक ओर तो नरेश मेहता के व्यक्तित्व की शालीनता और पवित्रता को व्यक्त करता हुआ उनके सांस्कृतिक बोध से परिचय कराता है और दूसरी ओर बींसवी शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों से भारत में आये परिवर्तन की कथा कहता है, जो आजादी के आसपास तक फैली हुई है।
प्रस्तावनारू
जन्म एवं परिवाररू
साहित्य के सजग शिल्पी तथा साहित्य को अन्वेषण की प्रक्रिया मानने वाले आधुनिक भारतीय साहित्य के शीर्षस्थ साहित्यकार एवं आधुनिक हिन्दी को कवि, कथाकार, गीतकार, नाटककार, पत्रकार तथा चिंतक के रूप में अपना प्रदेय सौंपने वाले श्री नरेश मेहता का जन्म 15 फरवरी, 1922 ई. में मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र के शाजापुर कस्बे में एक निम्न मध्यमवर्गीय वैष्णव परिवार में हुआ। नरेश जी का पारिवारिक नाम पूर्णाशंकर था, जो बाद में नरसिंहगढ़ की राजमाता के द्वारा दिये गये नाम नरेश के कारण नरेश मेहता हो गया।
नरेश मेहता के पितामह पं. मोतीराम एक पुरुषार्थी व्यक्तित्व के धनी थे। इनके तीन पुत्र पं. बिहारीलाल, पं. शंकरलाल और पं. रामनारायण और एक पुत्री थी। नरेश मेहता के पिता पं. बिहारीलाल को संतान के लिए तीन बार विवाह करने पड़े थे।
पहली पत्नी निःसंतान ही मर गई दूसरी पत्नी से एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम शांति था और तीसरे विवाह से पुत्र नरेश जी का जन्म हुआ। बालक नरेश के जन्म के डेढ़ वर्ष पश्चात् ही उनकी माता जिनका नाम सुन्दर बाई था का स्वर्गवास हो गया था।
तीन-तीन पत्नियों को खोकर पुत्र की प्रप्ति से पिता में एक अजीब संकुल भाव होना स्वाभाविक ही था। बड़े काका पं. श्री शंकरलाल जी धार राज्य में हेडमास्टर थे; बाद में डिप्टी कलेक्टर हो गये थे। उन्होंने ही बालक नरेश को अपने पुत्र के रूप में स्वीकार कर लिया और 3-4 वर्ष की उम्र में ही नरेश जी अपने चाचा के पास चले गये थे।
नरेश जी के पिता एक साधारण नौकरी में थे, वे रजिस्ट्रार थे और नीरसतापूर्ण जीवन जी रहे थे, वहीं पुत्र के प्रति दायित्व-विहीन भी होते चले गये। चाचा पं. शंकरलाल जी के पास अत्यधिक सम्पन्नता थी, हर सुख- साधन, भौतिक भोग विलास सब कुछ था, नहीं थी तो पारिवारिक उष्मा। इसी
अपनत्व की ऊष्मा के अभाव ने नरेश जी को काफी हद तक निष्ठुर बना दिया था। परिवार के नाम पर नरेश जी के हिस्से केवल अभाव ही आया। मातृत्व तथा पिता का वात्सल्य दोनों ही भावनाओं से नरेश जी अनभिज्ञ रहे। जिनसे उन्हें अपनत्व मिला वह था, दादा की बहन का परिवार। ”परिवार व्यक्ति को समझदार बनाता है, यही समय जीवन के सर्वांगीण विकास का प्रारंभिक काल भी है। परिवारहीनता की स्थिति में यह स्वाभाविक था कि नरेश जी प्रेरणा के स्रोत बाहर अन्य-परिवारों में ढंूढ़ते। जिस परिवार से उन्हें यह प्रेरणा प्राप्त हुई, उनके प्रति वे जीवन भर कृतज्ञ रहे। शाजापुर का भट्ट परिवार भी ऐसा ही परिवार था, पितामह की बहन का परिवार। घर से बिल्कुल लगा हुआ, जहाँ दादा (श्री नंद किशोर भट्ट) और भाभी से उन्हें बेहद आत्मीयता थी।“1
नरेश मेहता का विवाह इलाहाबाद के रहने वाले पं. श्री सत्यनारायण व्यास जी की बेटी महिमा, जो बहुत ही साधारण एवं संस्कारी परिवार से थी, के साथ हुआ। विवाह से पूर्व लखनऊ के कालखण्ड में नरेश जी का प्रेम प्रसंग चल रहा था। प्रेम विवाह की मंजिल तक न पहुँच सका और किसी गलतफहमी का शिकार होकर उस महिला ने आत्महत्या कर ली। जिसके आघात से नरेश जी आपादमस्तक हिल गये थे। महिमा जी विवाह के पूर्व कानपुर में स्नातक कक्षाओं में समाजशास्त्र की प्राध्यापिका थीं; परन्तु विवाह के बाद उन्होंने अपने प्राध्यापक पद से त्यागपत्र दे दिया और प्रेरणामयी पत्नी बनकर संघर्ष के हर क्षणों में नरेश जी का साथ दिया, उनमें आत्मविश्वास जगाया।
महिमा मेहता जी ने एक पुत्र बाबुल (ईशान) और 5 वर्ष बाद दूसरी संतान कन्या बुलबुल (वान्या) को जन्म दिया। दोनों ही बच्चे पढ़ाई में सदैव प्रथम स्थान ही प्राप्त करते थे। परिवार पर नरेश जी के व्यक्तित्व की छांव थी। वान्या का विवाह मुम्बई में निवासरत् बोरा परिवार के लड़के सुधीर बोरा परिवार में सम्पन्न हुआ और बाबुल का विवाह भी एक अच्छे संस्कारी परिवार की कन्या वन्दना से हुआ।
नरेश जी ने जीवन-संघर्ष के कई तपते कड़े कोस तय किये और अन्ततः उन्हें राहत भी मिली, परन्तु अचानक परिवार में एक दुखद घटना घटी और नरेश जी को मौन कर गयी, वह घटना थी, बेटे बाबुल के न रहने की। 13 जून 1988 में विवाह के मात्र डेढ़ महीने बाद बाबुल की एक कार दुर्घटना से असामयिक मृत्यु हो गयी और प्रशान्त तेजोमय व्यक्तित्व वाली नरेश जी की पुत्र-वधु वन्दना विधवा हो गयी।
नरेश जी को नर्मदा नदी से बेहद लगाव था वह उसे मातृरूप में ही देखा करते थे। पारिवारिकता या अपनत्व की ऊष्मा के स्पर्श से वंचित मातृहीन के लिए मातृवत थी नर्मदा। नर्मदा से ही उन्होंने आगे बढ़ना एवं जीवन-पर्यन्त चलते रहना सीखा। 22 नवम्बर सन् 2000 को नरेश जी ने अपने जीवन की इहलीला समाप्त की।
शिक्षा-दीक्षारू
नरेश जी की छठीं तक की पढ़ाई चाचा के यहाँ ‘धार’ में हुई। वे अपने चाचा के साथ केवल छठीं कक्षा तक रह सके, क्योंकि बाद की पढ़ाई उस कस्बे में नहीं होती थी। फिर वे आगे की पढ़ाई के लिए अपनी बुआ के यहाँ नरसिंहगढ़ भेज दिये गये। वहीं रहकर उन्होंने आगे की कक्षाएँ उत्तीर्ण की। पालन-पोषण का सारा खर्च चाचाजी ही वहन करते थे।
नरेश जी के आस्थावान पिता ने उन्हें आगे पढ़ाई के लिए नरसिंहगढ़ से उज्जैन भेज दिया। जहाँ उनके चचेरे भाई श्री नंदकिशोर भट्ट रहा करते थे, उन्हीं के साथ रहकर नरेश जी ने हाईस्कूल की परीक्षा पास की। तथा वहीं रहकर इण्टरमीडिएट की परीक्षा भी तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली। आगे की पढ़ाई के लिए नरेश जी ने काशी को चुना जहाँ उन्होंने बी.ए. की तथा एम.ए. हिन्दी साहित्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद बनारस जाकर वहाँ रहकर हिन्दी साहित्य में शोधकार्य भी प्रारंभ किया, जो कुछ कारणों से अधूरा ही रह गया था। उसके बाद बनारस के ‘आज’ अखबार में कुछ दिन काम किया, पर वह भी रास नहीं आया और उन्होंने बनारस को अलविदा कह दिया।
नरेश जी के जीवन का आरंभ एक प्रकार से सन् 1948 में लखनऊ के आॅल इंडिया रेडियो में कार्य की शुरुआत से हुआ। वे सन् 1948 से 1953 तक रेडियो कार्यक्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत् रहे। सन् 1954 से 1959 तक मुख्य रूप से दिल्ली में अपने चचेरे भाई नंद किशोर भट्ट के साथ रहे और कुछ छोटे-मोटे काम भी किये, पर सफल नहीं रहे फिर दिल्ली छोड़कर नरेश जी इलाहाबाद चले गये और इलाहाबाद को ही उन्होंने अपना अध्ययन केन्द्र बनाकर अपनी सृजनात्मक क्षमता पर बल देते हुए अपने जीवन को सृजनात्मक धरातल पर उतारा और फिर हिन्दी साहित्य जगत् के लिए निर्मित हुआ एक कवि, कथाकार, गीतकार, नाटककार, कहानीकार और पत्रकार।
बाह्य एवं आन्तरिक व्यक्तित्वरू
खुशमिजाजी-औत्सविक मानसिकता वाले श्री नरेश जी का व्यक्तित्व बहुत ही गहरा एवं आकर्षक था। नरेश जी के जीवन के ऐसे कई मोड़ हैं जिनसे उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ और प्रभावशाली भी बना।
नरेश जी श्याम वर्ण के थे, आँखें अपेक्षाकृत छोटी, तेज, निश्छल और चमकीली थीं जो सामने वाले को सम्मोहित करती थीं। बचपन में ही मातृहीन होने पर उनका शरीर रोगी था, परन्तु उनके पैर हिरण की तरह मजबूत थे, वे सभी प्रकार के खेल-खेलने में निपुण थे। नरेश जी बहुत ही करीने से कपड़े पहनते थे। बहुत ही अच्छी तरह से अपने केश संवारते थे, अच्छा और थोड़ा भोजन करते थे। वे खाने-पीने के बहुत शौकीन थे। ट्रेन में सदैव वातानुकूलित या प्रथम श्रेणी में ही चलते थे। नरेश जी चाय तो पीते ही थे, सिगरेट और पान का भी शौक था। नरेश जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनको संगीत, खासकर शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य में अत्याधिक रुचि थी। नरेश जी के स्वभाव में एक अजीब-सा विरोधाभाव था। वे ऊँच-नीच और जातिगत भेदों से बहुत परे थे।
प्रारंभ में नरेश जी बहुत ही क्रोधी स्वभाव के थे, परन्तु विवेक ने उन्हें सदा संतुलित रखा। नरेश जी का जीवन प्रारंभ में चाचा के संरक्षण में सुख-सुविधाओं के बीच बीता, परन्तु चाचा से कभी अपनापन और प्रेम नहीं मिला। ना ही पढ़ने-लिखने में उनकी रुचि उत्पन्न हुई। चाचा के कठोर अनुशासन ने उन्हें काफी हद तक विद्रोहवादी भी बना दिया था, जिससे उनका व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होकर कड़ुवाहट से भर गया था। ”प्रारंभ के दिन सुख और सुविधाओं से भरे थे, किन्तु समय बीतने के साथ-साथ पहले सुविधाएँ तिरोहित होने लगी और फिर सुख भी बीत गया। परिवार के नाम पर उनके हिस्से अभाव ही आया। फलस्वरूप प्रारंभ से ही व्यक्तित्व अन्तर्मुखी हो गया। उस अन्तर्मुखी किशोर को न परिवार का गणित समझ आया और न ही स्कूल का। दोनों ही गणित से उन्हें घृणा हो गई जिसने उनके व्यक्तित्व में कड़ुवाहट भर दी और वह कड़वाहट नरेश जी के जीवन का अंग बन गयी।“2
चाचा के संरक्षण में नरेश जी के भीतर एक खर्चीला सामन्ती स्वभाव भी निर्मित हो चुका था, वे शाहखर्ची बन गये थे; क्योंकि चाचा के साथ, उनके वैभव सम्पन्न वातावरण ने उन्हें उस प्रवृत्ति का बना दिया था। स्वाभिमान उनमें कूटकूटकर भरा हुआ था, परन्तु वे अभिमानी बिल्कुल नहीं थे। नरेश जी के व्यक्तित्व में गहरी कल्पनाशीलता भी थी। वे कहते थे - ”मैंने कभी समकालीनता की चिन्ता नहीं की तो समकालीनता मेरी चिन्ता क्यों करे। वे कहते थे, मैं जिद्दी हूँ लेकिन मेरी जिद्द वैसी है जैसी पत्थर को तरासने वाले पानी की जिद्द होती है।“3
नरेश मेहता के पिता पं. बिहारी लाल तथा काका शंकर लाल जी अपने विचार, जीवन शैली और व्यक्तित्वों के दो विपरित ध्रुव थे ये दोनों ही प्रभाव नरेश मेहता पर पड़े। दबंग, वैभव-सम्पन्न, सुसंस्कृत, बहुज्ञ, कविता-कला के प्रति गहरी रुचि रखने वाले चाचा तथा असंग तटस्थ भाव वाले अपने पिता इन दोनों व्यक्तियों का प्रभाव नरेश जी पर रहा। नरेश जी दृढ़संकल्पी तथा बोलने में निर्भीक थे। निर्भयता के अतिरिक्त नरेश जी के चरित्र की एक विशेषता थी उनका संयम, विवेक, धैर्य और प्रतीक्षा। संयम और विवेक उनके लेखन में भी देखा जा सकता है और उनके जीवन में भी। धैर्य और प्रतीक्षा का उदाहरण है उनकी किसी भी रचना पर टी.वी. धारावाहिक का न बनना।
े
नरेश जी स्वभाव से शालीन एवं निश्छल थे। पाण्डित्यपूर्ण वातावरण पारिवारिक देन स्परूप नरेश जी को बचपन से ही प्राप्त हुआ, उसे गरिमापूर्ण बनाया काशी के मनीषात्मक परिवेश ने और नरेश जी का मानसिक संस्कार उदात्त भूमि पर प्रतिष्ठित हो गया। काशी में नरेश जी पर गुरु श्री केशव प्रसाद मिश्र जी का गहरा प्रभाव पड़ा।
मित्र, नरेश जी की बहुत बड़ी कमजोरी थे। उनके मित्रों की सूची बहुत लम्बी है। शमशेर जी, अशोक वाजपेयी, महेन्द्र भल्ला, श्रीकांत वर्मा, कृष्णा सोबती, कैलाश चन्द्र माथुर, निर्मल वर्मा, राजकुमार, नेमीचन्द्र, सुरेश अवस्थी, कैलाशचन्द्र पन्त, डाॅ. सत्यप्रकाश, सरोजकुमार शान्ति मेहरोत्रा, आनंद मोहन, नीरव जी, गजानन माधव मुक्तिबोध, मीरा श्रीवास्तव, अज्ञेय, रामकमल, प्रभात, प्रमोद, पवन, सुरेन्द्र व्यास, गिरिराज किशोर, रमेश ग्रोवर, कनक तिवारी और भी कई मित्र थे जिन्होंने नरेश जी से आत्मीयता रखी, किसी ने विद्यार्थी जीवन को संभाला तो किसी ने सर्जक जीवन को। समय-समय पर इन मित्रों ने संघर्ष के क्षणों में भी इनका सहयोग कर इनके अन्दर के लेखक और कवि को हताश होने नहीं दिया।
नरेश जी को शास्त्रीय, धर्म, दर्शन, इतिहास, ज्योतिष, तन्त्र पढ़ने में भी अधिक रुचि थी, परन्तु जासूसी कहानियाँ पढ़ना भी उन्हें अच्छा लगता था। नरेश जी को उर्दू का अच्छा ज्ञान था और वे गलत उच्चारण पसंद नहीं करते थे, उनका मानना था कि गलत उच्चारण भाषा का अपमान है।
नरेश जी स्वतन्त्र विचार वाले व्यक्ति थे, रेडियो कार्यक्रम अधिकारी पद से त्यागपत्र देना उनके स्वतन्त्र स्वाभिमान एवं स्वतन्त्र विचार का द्योतक है। नरेश जी पूरी तरह आस्तिक थे। वे पारम्पारिक ढंग से पूजा-पाठ नहीं करते थे बस सुबह नहाधोकर गायत्री मंत्र का जाप और सोने से पहले ध्यान उनका नित्य नियम था। वे साल में तीन बार व्रत रखते थे - जन्माष्टमी, दुर्गा अष्टमी और महाशिवरात्रि।
नरेश जी सारे त्यौहार, पर्व बड़े ही उत्साह से मनाते थे। नरेश जी औत्सविक मानसिकता वाले व्यक्ति थे। वे उत्सव मनाने का अवसर ढूंढा करते थे। घर पर किसी मित्र या अतिथि का आगमन उनके लिए उत्सव हो जाता था। नरेश जी के व्यक्तित्व में उस परमसत्ता की अनुभूति का जो तत्व है उसको जाने बिना उनके व्यक्तित्व को पूर्णता से नहीं समझा जा सकता। नरेश जी का आध्यात्मिक पक्ष बहुत ही गहरा है।
नरेश जी के व्यक्तित्व की छाप अमिट है उनका पार्थिव शरीर नहीं है पर उनका अमर व्यक्तित्व सदा रहेगा। उनके व्यक्तित्व का दीप साहित्य जगत् को आलोकित करता रहेगा - अनागत कालों तक।
कृतित्वरू
आधुनिक भारतीय साहित्य के शीर्षस्थ कवि, कथाकार एवं विचारक नरेश मेहता अपनी सृजनात्मकता एवं पहली तुकबंदी का श्रेय अपनी बहन शान्ति को देते हैं। नरेश मेहता को रचनाकारों की पंक्ति में विशिष्ट स्थान दिलाने का बहुत बड़ा श्रेय पत्नी महिमा जी को जाता है। महिमा जी पति नरेश जी के सर्जनापथ को प्रशस्त करने के लिए कुछ भी करने को तैयार थीं। महिमा जी का सम्बल नरेश जी के लिए सबसे बड़ा सम्बल था।
नरसिंहगढ़ के निवास काल में नरेश जी ने स्कूल पढ़ाई के अतिरिक्त भी बहुत कुछ पढ़ा। ”हाई स्कूल के पहले ही उन्होंने ‘चन्द्रांता’, ‘राबिन्सन् क्रूसो’, ‘युद्ध और शान्ति’ तथा ‘दो नगरों की कहानियाँ’, ‘कालिदास’, ‘सूर’ और ‘तुलसी’ तथा ‘महाभारत’, ‘पुराण’ और धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन और श्रवण भी किशोरावस्था में ही किया था। वस्तुतः इससे उनकी रुचि एक ओर परिमार्जित होती गई और दूसरी ओर साहित्य के प्रति रचनात्मकता का भाव भी पैदा करती गयी।“4 उन्होंने विदेशी उपन्यास भी पढ़े। नरसिंहगढ़ के तालाब के किनारे बहुत से साहित्य को नरेश जी ने पढ़ा, खूब कविताएँ भी लिखी। नरसिंहगढ़ के परिवेश ने ही उन्हें सर्जक बनाया।
दिल्ली के निवास के समय कवि मेहता का संपर्क कुछ विशिष्ट साहित्यकारों से हुआ। संपर्क इनकी साहित्यिक दृष्टि के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। अंत में अपने साहित्यिक कृतित्व के लिए उपयुक्त न लगने के कारण इन्होंने दिल्ली छोड़कर, प्रयाग में स्थायी रूप से रहना स्वीकार कर लिया। अंततः इलाहाबाद में जाकर बसने का निर्णय नरेश जी के साहित्यिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय साबित हुआ। शब्द पुरुष अज्ञेय विचार संस्मरण’ में नरेश जी ने स्वयं लिखा है - ”कुछ दिनों बाद मेरा तबादला नागपुर हो गया। हालांकि लखनऊ से ही मैं जान चुका था कि रेडियो की यह सरकारी नौकरी बहुत नहीं चलेगी और मैं भी कोई बहुत उत्सुक नहीं था। इलाहाबाद के इन वर्षों ने एक प्रकार से मेरा भविष्य तय कर दिया था, कि मुझे सिर्फ लेखक ही बनना है और वह भी इलाहाबाद में रहकर और यह संकल्प अगत्या सन् 1959 में जाकर ही फलीभूत हुआ।“5
नरेश जी काशी में ऋषिवत् आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, पण्डित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र तथा आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के वैदिक ज्ञान को प्राप्त करते रहे। इस प्रकार वैष्णव संस्कार तथा शिवत्व एक दूसरे के अपूर्व सम्पर्क से सम्पर्कित हो एक खरे कंचन की तरह औपनिषदिक आशा से स्वरूपित हो उठे। इस तरह मालवा और काशी की सारी स्मृतियाँ नरेश जी की रचनाओं में स्पष्ट झलकती हैं। ”नरेश के रहन-सहन, वेशभूषा और काव्य-रचना पर सुरुचिपूर्ण आभिजात्य की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। वे मालवा के निवासी और काशी के अन्तर्वासी रहे हंै। उनकी रचनाओं में दोनों स्थानों की हल्की अनुगुंज सुनाई पड़ती है।“6
प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा और कवि नरेन्द्र शर्मा का इन पर गहरा प्रभाव पड़ा। काशी जाने पर नरेश जी का काव्य-व्यक्तित्व सामने आया साथ ही गद्य लेखन भी विकसित होता रहा। प्रथम उपन्यास ‘ट्रेन्चिज के पीछे’ लिखा, उपन्यास में व्यक्त उग्र विचारधारा तथा राजनीतिक टिप्पणियों के कारण उस उपन्यास को तात्कालिन अधिकारियों द्वारा जब्त कर लिया गया। नरेश जी ने बंगला साहित्य का भी अध्ययन किया वस्तुतः इन्हें उपन्यास लिखने की प्रेरणा शरत्चन्द जी से ही मिली। नरेश मेहता प्रगतिशील प्रयोगनिष्ठ साहित्यकार है परन्तु वे एक सफल कवि के रूप में अधिक ख्यातिलब्ध रहे हैं - ”नरेश मेहता ने भले ही साहित्य की विविध विधाओं के सृजन क्षणों में तन्मयता का अनुभव किया हो, लेकिन उनकी वास्तविक सृजन भूमि गीत और कविता की रही।“7
नरेश मेहता ने गद्य एवं पद्य की समस्त विधाओं में अपनी सर्जना की है, जो निम्नलिखित हैं -
काव्य संकलनरू
1. दूसरा सप्तक (1951)
2. बनपाखी सुनो (1957)
3. बोलने दो चीड़ों को (1961)
4. मेरा समर्पित एकांत (1963)
5. उत्सवा (1979)
6. तुम मेरा मौन हो (1982)
7. अरण्या
8. आखिर समुद्र से तात्पर्य
9. पिछले दिनों नंगे पैरो
10. देखना एक दिन
11. चैत्या
खण्ड काव्य रू
1. संशय की एक रात (1962)
2. महाप्रस्थान (1964)
3. प्रवाद पर्व (1977)
4. शबरी (1977)
5. प्रार्थना पुरुष (1985)
कहानीरू
1. तथापि (1962)
2. एक समर्पित महिला (1977)
3. जलसाघर
नाटकरू
1. सुबह के घण्टे (1955)
2. खण्डित यात्राएँ (1962)
एकांकीरू
1. सनोबर के फूल
2. पिछली रात की बर्फ
उपन्यासरू
1. डूबते-मस्तूल (1954)
2. यह पथ बन्धु था (1962)
3. धूमकेतु एक श्रुति (1963)
4. दो एकान्त (1964)
5. नदी यशस्वी है (1967)
6. प्रथम फाल्गुन (1968)
7. उत्तर कथा (प्रथम भाग) (1979)
8. उत्तर कथा (द्वितीय भाग) (1979)
विचार संस्मरणरू
1. काव्य का वैष्णव व्यक्तित्व
2. मुक्तिबोध एक अवधूत कविता
3. शब्द पुरुष अज्ञेय
4. काव्यात्मकता का दिक्काल
5. हम अनिकेतन
6. साधु न चले जमात
संपादनरू
1. बाग्देवी
2. गांधी गाथा
3. हिन्दी कविता पहचान और परख
4. कृति
5. चैथा संसार
6. आज
7. साहित्यकार
8. भारतीय श्रमिक
पंद्रह नवम्बर, सन् 2000 को ‘प्रदक्षिणा अपने समय की’ लिखकर पूरी हुई। और 22 नवम्बर, सन् 2000 की सुबह यों ही कागज पर कलम चलाते हुए लिखा -
”क्या कोई यह कभी जान पायगा कि
किन परिस्थितियों, विषमताओं में
जीकर यहाँ तक पहुँचा ?
शायद नहीं। पर क्या बताकर
कुछ सम्प्रेषित कर सकूँगा ?
जो सम्प्रेषित होगा वह वही नहीं होगा
जो मैं चाहता रहा हूँ क्योंकि ........“8
ये नरेश जी द्वारा लिखित अंतिम पंक्तियाँ साबित हुई और इसके बाद ही उनकी सतत् चलने वाली रचना प्रक्रिया को विराम मिला। श्वासों के विराम के साथ।
संदर्भ ग्रंथरू
1ण् मेहता महिमा, उत्सव पुरुष: श्री नरेश मेहता, नयी दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ, 2003, पृ.सं. 36, पैरा. 4
2ण् शर्मा विष्णु प्रभा, नरेश मेहता कृत - ‘महाप्रस्थान’, नयी दिल्ली, आशा प्रकाशन, 1985, पृ.सं. 107, पैरा. 3
3ण् मिश्र सत्यप्रकाश, माध्यम, प्रयाग, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, जनवरी-मार्च 2001, पृ.सं. 44, पैरा. 3
4ण् शर्मा राजकुमार, हिन्दी उपन्यास उद्भव एवं विकास, जयपुर, कालेज बुक डिपो (अप्राप्त संस्करण), पृ.सं. 1, पैरा. 2
5ण् मेहता नरेश, शब्द पुरुष ‘अज्ञेय’, इलाहाबाद, लोकभारती प्रकाशन, 1989, पृ.सं. 13, पैरा. 1
6ण् सिंह बच्चन, हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, नयी दिल्ली, राधाकृष्णन प्रकाशन, 2000, पृ.सं. 436, पैरा. 2
7ण् शर्मा कुमुद, हिन्दी के निर्माता, नयी दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ, 2006, पृ.सं. 382, पैरा. 3
8ण् मेहता महिमा, उत्सव पुरुष: श्री नरेश मेहता, नयी दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ, 2003
Received on 25.07.2011
Accepted on 14.08.2011
© A&V Publication all right reserved
Research J. Humanities and Social Sciences. 2(3): July-Sept., 2011, 110-114