रामायण:प्रबंध का मूल’’ विजयसूत्र अभिप्रेरणा
हेमंत शर्मा
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर
प्रस्तावना
सी.एस. जार्ज (जू.) ने प्रबंध के संबंध में कहा कि- ‘‘प्रबंध का तात्पर्य दूसरों के माध्यम से कार्य को पूरा कराना है’’, किंतु आज के प्रबंधशास्त्रियों की विचारधारा के अनुसार वर्तमान समय में प्रबंध का कार्य प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान करना है। यह विचारधारा आज की नहीं अपितु रामायण काल में जब आज के प्रबंधशास्त्र की कल्पना भी नहीं की गई थी, तब प्रभु श्रीराम जी द्वारा प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान कर उद्देश्य की प्राप्ति की गई थी, जब वो किसी राज्य के राजा भी नहीं थे अर्थात् यह विचारधारा, ‘‘प्रबंध का कार्य प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान करना है’’ सनातन काल से शाश्वत है। रामायण का अध्ययन जिस विषय-दृष्टि से की जावे, इसमें उस विषय-वस्तु का सार-विवरण मिलेगा। रामायण शास्त्रों की खान है, प्रबंध की विषय-दृष्टि से अध्ययन करने पर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि रामायण प्रबंध की पहली पाठशाला थी और प्रबंधशास्त्र का मूल उद्भव रामायण से ही हुआ है।
प्रबंधशास्त्री जार्ज आर. हेरी के प्रबंध को दिए परिभाषा- प्रबंध एक प्रक्रिया है जिसमें नियोजन, संगठन, अभिप्रेरण तथा नियंत्रण को शामिल किया जाता है, जिसका निष्पादन मनुष्यों एवं साधनों के उपयोग द्वारा उद्देश्यों को निर्धारित एवं प्राप्त करने के लिए किया जाता है’’ के अनुसार ‘रामायण’ में प्रबंध के सभी तत्वों का समावेश है, साथ ही रामायण की विषय-वस्तु जितनी रोचक है, उतनी ही विस्तृत भी है इसलिए प्रबंध के एक ही तत्व की विवेचना यहाँ की जा रही है, जो राम-विजय का कारण बनी थी, जिसने प्रभु श्रीराम के उद्देश्य से सभी को मन से जोड़ा, वह है अभिप्रेरणा।
रामायण में प्रभु श्रीराम के निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अलग-अलग स्थानों पर प्रभु श्रीराम के अलावा अन्य लोगों ने भी अभिप्रेरणा का उपयोग किया हैै। तुलसीदास रचित, रामचरित मानस के बालकाण्ड में गाधि के पुत्र मुनि विश्वामित्र राजा दशरथ से कहते हैं-
‘‘असुर समूह सतावहिं मोही।
मैं जाचन आयहूँ नृप तोही।।’’
उद्देश्य का निर्धारण हो गया था, मुनियों को राक्षसों के संताप से मुक्त करना। अब उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य कराया जाना था और कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करना था, राजा दशरथ को मौद्रिक अभिप्रेरणा नहीं दी जा सकती थी, इसलिए विश्वामित्र ने अभिप्रेरित किया-
‘‘देहु भूप मन हरषित तजहू मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान।।’’
अर्थात् हे राजन् राक्षसों से ़ऋषि-मुनियों को मुक्ति दिलाने इन बालकों को हमें सौंद दो, इससे तुमको धर्म एवं सुयश की प्राप्ति होगी और इन बालकों का कल्याण होगा। डब्लू.जी. स्काट की परिभाषा ‘‘अभिप्रेरणा लोगों को इच्छित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करने हेतु प्रेरित करने की क्रिया है।’’
उद्देश्य ऋषि-मुनियों को राक्षसों के आतंक से मुक्त कराना था, इच्छा विश्वामित्र की थी इसलिए अभिप्रेरक थे विश्वामित्र। अभिप्रेरणा कल्याण की थी और अभिप्रेरित किया जा रहा था राज दशरथ को, यह विशुद्ध रूप से अमौद्रिक अभिप्रेरणा थी। ‘‘आवश्यकता का अनुभव करा कर काम करने के लिए प्रेरित करना ही अभिप्रेरणा है।’’
आवश्यकता थी राज्य-धर्म का पालन, प्रजाजन की रक्षा, धर्म की रक्षा और विश्वामित्र ने राजा दशरथ को इस आवश्यकता का अनुभव करा कर अभिप्रेरित किया। प्रभु श्रीराम की सुग्रीव से मित्रता बाली का वध, सुग्रीव को राज्य, सब में एक उद्देश्य निहित था। माता सीता की खोज और उनकी सकुशल वापसी इस कार्य में सुग्रीव के करोड़ों सेवक वानरों की आवश्यकता थी, जो चारों दिशाओं में भेजे जा सकें इसलिए प्रभु ने सुग्रीव के राज्याभिषेक के बाद सुग्रीव से कहा-
‘‘अंगद सहित करहु तुम्ह राजू।
संतत हृदय धरेहू मम काजू।’’
जाओ और अंगद के साथ राज करो, किंतु मेरे कार्य, मेरे उद्देश्य को सदा ध्यान में रखना। सुग्रीव की इच्छा से बाली का वध कर प्रभु श्रीराम ने सुग्रीव का राजतिलक किया और उसे कार्य के लिए मौद्रिक अभिप्रेरणा प्रदान की। सीता माता की खोज में वानरों को जिस प्रकार सुग्रीव ने कार्य के लिए प्रेरित किया, वह अभिप्रेरणा की अपनत्व की आत्मीयता की भावना थी। वानरों के मन में प्रभु श्रीराम के प्रति अगाध श्रद्धा थी और सुग्रीव ने इसी को अभिप्रेरणा का अमौद्रिक कारण बनाया। वानरों से कहा-
‘‘राम काज अरु मोर निहोरा।
वानर जूथ जाहु चहु ओरा।।’’
हे वानरों.... यह प्रभु श्रीराम का कार्य है और मैं निवेदन कर रहा हूँ अपनत्व की, आत्मीयता की भावना - अभिप्रेरणा का एक मूल तत्व, जिसका उपयोग वानरों के लिए किया जा रहा था। सुग्रीव जानते थे राजकार्य में अपनत्व की आत्मीयता की भावना नहीं होती। राज-आज्ञा में निर्देश, आदेश की कठोरता होती है इसलिए सुग्रीव ने वानरों से कहा- ‘‘राम काज अरु मोर निहोरा’’ कार्य तुम्हारे प्रभु श्रीराम का है और यह राजकीय भाषा नहीं है, बल्कि तुम्हारे राजा का निवेदन है। अमौद्रिक अभिप्रेरणा में जब अपनत्व की आत्मीयता की भावना का गुण सम्मिलित हो, तो इसका स्वमेव विस्तार होता। अभिप्रेरित जामवंत भी एक अभिप्रेरक बने। सीता माता को न खोज पाने की व्यथा में पड़े वानरों के लिए जामवंत एक अभिप्रेरक बन कर कहते हैं कि-
‘‘कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
पवन तनय बन पवन समाना। बुध विवेक विग्यान निधाना।।’’
और
‘‘कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहि होइ तात तुम्ह पाहीं।
राम काज लगि तव अवतारा । सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।।’’
जामवंत ने कहा- हे हनुमान सुनो, तुमने यह क्या चुप्पी साध रखी है। तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो जगत में कौन सा ऐसा कार्य है, जो तुमसे न हो सके। तुम्हारा जन्म ही रामकाज करने के लिए हुआ है। जामवंत की प्रेरणा पूर्णतः कार्य संतुष्टि को प्रदर्शित करने वाला है।
‘‘रामकाज लगि तव अवतारा।’’
डग्लस मेक्ग्रेगर द्वारा स्थापित अभिप्रेरणा के ‘वाय’ सिद्धांत की मान्यता ‘‘सामान्यतः व्यक्ति केवल विŸाीय प्रलोभनों से ही कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं होता, अपितु अविŸाीय प्रलोभनों जैसे- सामाजिक, स्वाभिमान, सम्मान भी उसे कार्य करने की प्रेरणा देते हैं।’’ जामवंत ने अभिप्ररेणा के ‘वाय’ सिद्धांत के अनुरूप ही हनुमान के सामाजिक कार्य की इच्छा और स्वाभिमान, सम्मान को आधारित कर अभिप्रेरित किया।
रामायण में जो भी पात्र अभिप्रेरक के रूप में सामने आया, वह कुशल नेतृत्वकर्Ÿाा की दृष्टि रखता था। प्रभु श्रीराम हों, वानरों के राजा सुग्रीव होें या रीछों के राजा जामवंत, सभी ने बेहतर रूप से निर्धारित किया कि कौन मौद्रिक अभिप्रेरणा से राज्य प्राप्ति के लिए कार्य करेगा, कौन अपनत्व की आत्मीयता की भावना से कार्य करेगा और और कौन मान-सम्मान तथा कार्य-संतुष्टि के लिए कार्य करेगा और उसी अनुरूप अभिप्रेरणा दी।
जामवंत के द्वारा अभिप्रेरित हनुमान-
‘‘सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।’’
हनुमान जामवंत के प्रेरणा से भरे शब्द सुनते ही पर्वत के आकार के हो गए और कहा-
‘‘लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा।’’
इस समुद्र को मैं खेल में लांघ सकता हूँ और-
सहित सहाय रावनही मारी।
आनऊँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।’’
सहायक सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर ला सकता हूँ। जामवंत के अभिप्रेरणा ने बड़ा काम किया, हनुमान की कार्य-क्षमता में वृद्धि के स्पष्ट संकेत मिले और यही अभिप्रेरणा की विशेषता है। अभिप्रेरणा कार्य-क्षमता में वृद्धि करती है’’। प्रभु श्रीराम के नेतृत्व-कुशलता एवं नीति-निपुणता के संदर्भ में यहाँ उल्लेख किया जाना रामायण में अभिप्रेरणा के महत्व को दर्शाता है। प्रभु श्रीराम ने सभी के साथ समानता का और उसके स्तर का व्यवहार किया। अभिप्रेरणा की जो नीति सुग्रीव के लिए अपनाई वही नीति उन्होंने रावण के भाई विभीषण के लिए अपनाया। दोनों में जन्म एवं कुल के अंतर के बाद भी, एक वानर जाति का दूसरा राक्षस-कुल का, कुछ समानताएँ थी जो केवल प्रभु श्रीराम की दृष्टि ही देख सकती थी, यह वह समानताएँ थी जो दोनों को ही प्रभु श्रीराम के समक्ष समान पदधारी बनाती थी। सुग्रीव और विभीषण दोनों ही पराक्रमी राजा के भाई थे और दोनों ही प्रताड़ित व राज्य से निष्कासित थे, दोनों ही प्रभु के प्रति गहरी आस्था रखते थे। इसलिए प्रभु श्रीराम ने विभीषण से मिलते ही यह अहसास करा दिया कि यहाँ जो जिस योग्य है, उसे उस योग्य सम्मान प्राप्त होगा। यदि विभीषण भी मारे जाने वाले रावण के भाई हैं और प्रभु श्रीराम के उद्देश्य में शामिल हैं, तो उन्हें भी सुग्रीव की तरह ही सम्मानित किया जावेगा। इसलिए प्रभु श्रीराम ने विभीषण से मिलते ही संबोधित करते हुए जो पहला शब्द कहा, वह था- ‘कहु लंकेस’
‘‘कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर वास तुम्हारा।।’’
हे लंकेश ! परिवार सहित अपनी कुशलता कहो, क्योंकि तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है। इस तरह प्रभु श्रीराम ने विभीषण के लिए अभिप्रेरणा से समस्त मूल तत्वों- सुरक्षा, मान्यता, प्रगति और विकास के अवसर तथा अपनत्व की आत्मीयता की भावना को केवल एक वाक्य में-‘‘कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर वास तुम्हारा।।’’ कहकर यह प्रमाणित कर दिया कि प्रभु श्रीराम ऐसे कुशल नेतृत्वकर्Ÿा हैं, जिन्हें किसे, कहाँ, कब और कैसे अभिप्रेरित करनी है का बड़ा भान है। विभीषण को लंकेश शब्द से संबोधित करके उन्होंने सबको समझा दिया कि यहाँ सबसे न्यायोचित व्यवहार किया जावेगा और उनके मान-सम्मान को पूरी सुरक्षा दी जावेगी।
‘‘कहु लंकेस सहित परिवारा’’
लंका के भावी राजा को प्रथम मिलन में ही राजा की मान्यता दे देना सबसे प्रभावशील अभिप्रेरणा थी। इसके साथ ही विभीषण को एक दिशा दे दी गई, एक लक्ष्य दिख दिया गया, एक उद्देश्य से प्रभु श्रीराम ने विभीषण को बाँध दिया, विभीषण अपनी उन्नति और विकास एक राजा के रूप में कर सकते थे, वह इच्छा उसके मन में उत्पन्न कर दी गई।
‘‘कुसल कुठाहर वास तुम्हारा’’
कहो लंकेश तुम्हारा परिवार कैसा है, मुझे उसकी ही विशेष चिंता है, क्योंकि तुम्हारा निवास बुरे स्थान पर है। विभीषण के प्रति यही चिंता ‘‘अपनत्व की आत्मीयता’’ की भावना का अभिप्रेरणा है, जो विभीषण को प्रभु श्रीराम के उद्देश्यों के साथ पूरी आत्मीयता से जोड़ता है।
‘‘खल मंडली बसहु दिन राती।
सखा धरम निबइह केहि भांति।।’’
इस प्रकार के आत्मीय वचन विभीषण को प्रभु श्रीराम के और उनके कार्य के और अधिक निकट ले आते हैं। इस तरह विभीषण को उद्देश्य से पूरी तरह जोड़ने का कार्य इन अभिप्रेरणाओं के माध्यम से प्रभु श्रीराम ने कर दिया।
‘‘जरत विभीषण राखउ दीन्हेउ राजु अखंड।।’’
कर्मशील, धर्मशील, श्रद्धा से ओत-प्रोत विभीषण को प्रभु श्रीराम ने सुरक्षा, मान्यता, अपनत्व और विकास के अवसर ही नहीं दिये, रावण के अखंड राज्य के रूप में मौद्रिक अभिप्रेरणा भी दी। एक विशेष बात का उल्लेख प्रभु श्रीराम की नेतृत्व-कुशलता के संबंध में करना प्रासंगिक लगता है कि उन्होंने सुग्रीव को अभिप्रेरणा के मूल तत्व- सुरक्षा, मान्यता, प्रगति तथा विकास के अवसर एवं अपनत्व की आत्मीयता की भावना में से केवल तीन प्रकार से ही अभिप्रेरित किया जो सुरक्षा, मान्यता, प्रगति तथा विकास के अवसर के रूप में थे। उन्होंने सुग्रीव को अपने बराबर आसन देकर सम्मानित किया, हृदय से लगाकर भक्ति दी, राज्य वापस दिलाने में सहायता की। लेकिन अपनत्व की आत्मीयता की भावना से ओत-प्रोत वे शब्द नहीं बोले, जो विभीषण से कहे थे-
‘‘कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर वास तुम्हारा।।’’
और
‘‘खल मंडली बसहु दिन राती।
सखा धरम निबइह केहि भांति।।’’
विषय आश्चर्य का नहीं है, अपितु श्रद्धा और विश्वास का है। विभीषण की श्रद्धा एवं विश्वास प्रभु श्रीराम में उनसे मिलने के पूर्व से ही थी, लेकिन सुग्रीव की श्रद्धा और उसका विश्वास प्रभु श्रीराम में उनसे मिलने के बाद बनी थी। यही वह बारीक अंतर है, जो प्रभु श्रीराम के कुशल नेतृत्व को प्रदर्शित करता है और उन्हें कुशल नेतृत्वकर्Ÿाा के रूप में स्थापित करता हैं साथ ही रामायण को प्रबंध के प्रथम पाठशाला के रूप में भी स्थापित करता है, जिसमें प्रभु श्रीराम बता रहे हैं कि किसे, कब, कहाँ और कैसे उद्देश्य के लिए कार्य करने अभिप्रेरित किया जाता है। उद्देश्य की प्राप्ति में प्रभु श्रीराम ने आदेशों की भाषा का प्रयोग नहीं किया, अपितु हर प्रयास के पूर्व अपने निजजनों, सहयोगियों से मंत्रणा, विचार-विमर्श किया और सभी सहयोगियों को उनके अनुरूप मान्यता दी और अंत तक निरंतर देते रहे। लंका-युद्ध आरंभ होने की प्रथम प्रभात बेला पर-
‘‘हइाँ प्रात जागे रघुराई । पूछा मत सब सचिव बुलाई।।
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई।।’’
प्रातःकाल जगने के बाद प्रभु श्रीराम ने सभी मंत्रीजनों को बुलाया और सलाह पूछी कि अब क्या करना है शीघ्र बताइए। वह मान्यता की अभिप्रेरणा थी, जिसे प्रभु श्रीराम ने युद्ध तक और उसके बाद भी बनाए रखा। इन्हीं प्रेरणादायी शब्दों से प्रेरित योद्धाओं ने रावण की लंका पर विजय पाई और वह युद्ध कालो-काल तक प्रभु श्रीराम की विजय के रूप में अजर-अमर हो गया। सच है और प्रमाणित भी कि जो कार्य बड़ी-बड़ी तकनीक नहीं कर सकी, उसे अभिप्रेरणा के माध्यम से कराया जा सकता है। यही ज्ञान प्रबंध के संबंध में रामायण से प्राप्त होता है। इसलिए यह स्वप्रमाणित है कि- ‘‘प्रबंध का मूल रामायण है।’’
Received on 14.12.2011
Revised on 05.02.2012
Accepted on
12.03.2012
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Research J.
Humanities and Social Sciences. 3(2): April-June, 2012, 170-172