राष्ट्रीय आंदोलन एवं प्रजामंडल आंदोलन का अन्तर्सम्बन्ध: प्रगति, प्रभाव व सीमाएँ।

 

अरूण कुमार निराला

शोधप्रज्ञ ;मानविकी संकायद्धए बीण् आरण् एण् बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्रपफरपुर

 

साराँश

भारतीय स्वतंत्राता संग्राम लंबी अवधि तक चलने वाली प्रक्रिया रही है, कंपनी शासन की स्थापना के काल से ही इसके विरूद्ध छिट-पुट प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की जाने लगी थी । 1857 में प्रथम बार इस प्रतिक्रिया का स्वरूप संगठित व सामूहिक हो पाया । 1857 0 के आंदोलन के पश्चात् स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर पर विभिन मुद्दो को लेकर विभिन्न वैचारिक ध्रातलो पर अनेक आंदोलनों का सूत्रापात हुआ । भारत में देशी रियासतों की प्रजा द्वारा चलाया गया आंदोलन इसी श्रृंखला की एक कड़ी थी ।

 

वस्तुतः देशी रियासतो की प्रजा का आंदोलन राजसी शोषण के विरूद्ध था । लेकिन, चूँकि ब्रिटीश साम्राज्य की वपफादारी व संरक्षण के शत्र्त पर इन रियासतो के शासको को साम्राज्य की ओर से भी वैध्ता व संरक्षण प्राप्त था, अतः स्वाभाविक रूप से प्रजा मंडल आंदोलन की दिशा राजसी शोषण के साथ -साथ ब्रिटीश साम्राज्य के विरूद्ध भी हो गयी ।

 

रियासतो में चल रहे आंदोलनों के कारण शासकों द्वारा आध्ुनिकीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की गई, लेकिन इससे आंदोलन की गति थमने के बजाए और भी तीव्र हो गयी । अब प्रजा द्वारा की जाने वाली माँगो में रियासतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की माँग भी जुड़ गयी । रियासतो की प्रजा के आंदोलनों की तीव्रता को देखते हुए राष्ट्रीय नेतृत्व ने इसे अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया । इसी कड़ी में हरिपुरा कांग्रेस अध्विेशन 1938 में कांग्रेस ने प्रजा आंदोलन को नैतिक समर्थन देने का प्रस्ताव पारित किया था । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कांग्रेस ने देशी भारत रियासतों की प्रजा से आंदोलन में शामिल होनने का आग्रह किया तथा रियासतो को भारत का अभिन्न अंग मानने का प्रस्ताव दबाव ब्रिटिश सत्ता पर डाला ।  इस तरह से विविन्न रियासतो व ब्रिटिश भारत का जन संघर्ष एकीकृत हो गया।

 

अब आम जनता सभी प्रमुख राष्ट्रीय आंदोलनों से जुड़कर ब्रिटिश सरकार से प्रत्यक्ष टकराव के चरण में प्रवेश कर चुकी थी । राष्ट्रीय आंदोलन से प्रजामंउल आंदोलन का जुडाव होने से जहाँ एक ओर ब्रिटिश साम्राज्य का सुरक्षा कवच भंग हुआ तथा सरकार आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से कमजोर हुई, वही दूसरी ओर राष्ट्रीय आंदोलन को भी इससे शक्ति प्राप्त हुई । इसी परिस्थिति ने भारतीय स्वतंत्राता का मार्ग प्रशस्त किया । लेकिन इस आंदोलन की सबसे बड़ी सीमा यह रही की इसकी साकारात्मक शक्तियों का प्रयोग भारत विभाजन क विरूद्ध नहीं हो सका।

 

शब्द कँुजीरू विऔपनीवेशीकरण, रक्षाकवच, धर्मिक पुनरूत्थान जनस्वाभाविक नेता, अनुकूलतम उपयोग, प्रजातंत्राीकरण, आध्ुनिकीकरण, उत्तरदायी शासन, प्रजामंडल, जन राष्ट्रवाद, नव-उपनिवेशवाद।

 

प्रस्तावनारू

भारतीय स्वतंत्राता संग्राम लंबी अवधि तक चलने वाली एक प्रक्रिया रही है। यहाँ जबसे साम्राज्यवादी विस्तार शुरू हुआ, तभी से आम जनता इसके विरूद्ध छिट-पुट प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करने लगी थी। 1857 की क्रांति के रूप में प्रथम सामुहिक व संगठित प्रतिक्रिया व्यक्त की गई थी। इस प्रतिक्रिया ने देशी रियासतों को हड़पने की प्रक्रिया पर विराम लगा दिया। इस क्रांति के पश्चात् भारत में एक ही समय में आंदोलन की कई धराएँ सक्रिय रही। इनमें उदारवादी, उग्रवादी, क्रांतिकारी, सुधरक समूह व आम जनता की स्थानीय प्रतिकुलताओं के विरूद्ध प्रतिक्रियाएँ प्रमुख थी। राष्ट्रीय स्तर के अध्किांश आंदोलनों में ब्रिटीश प्रतिरोध भी शामिल था, जबकि स्थानीय आंदोलनों में  परिवर्तन की कल्पना थी, भले ही इसके कई जातीय गुट थें। स्थानीय आंदोलनो के विभिन्न गुटो में एकता स्थापित करना तथा उसे ब्रिटीश प्रतिरोध के साथ जोड़ना एक कठिन कार्य था, किन्तु विऔपनिवेशीकरण के लिए यह अत्यंत आवश्यक था।

 

1920 0 से इस दिशा मंे प्रयास शुरू हुआ एवं 1940 के दशक मंे इसके सपफलीभूत परिणाम सामने आने लगे। इस दशक में भारतीय स्वतंत्राता संग्राम के स्वरूप मंे महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। अब आम जनता सभी प्रमुख राष्ट्रीय आंदोलनो से जुड़कर ब्रिटीश सरकार से प्रत्यक्ष टकराव के चरण में प्रवेश कर चुकी थी। यह परिवर्तन देशी रियासतों की प्रजा की माँगों को राष्ट्रीय स्वर मिलने से संभव हुआ था। राष्ट्रीय आंदोलन से देशी रियासत के आंदोलनो का जुड़ाव होने से एक ओर तो ब्रिटीश साम्राज्य का सुरक्षा कवच भंग हुआ, जिससे ब्रिटीश सरकार आर्थिक व राजनीतिक दोनों दृष्टि से कमजोर हुयी। वही दूसरी ओर स्वतंत्राता आंदोलन को इससे शक्ति मिली। राष्ट्रीय आंदोलन व रियासत के प्रजा आंदोलनो के एकीकरण में क्रांतिकारीयों, कांग्रेस के सोशलिस्ट ग्रुप, वाम पंथी गुट और गैर राजनीतिक संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण रही। सरदार वल्लभभाई पटेल, सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी, विट्ठलभाई पटेल जैसे राष्ट्रीय नेता तथा लाखनजी जैसे जागरूक राजा व कई दीवानों ने व्यक्तिगत रूप से इस प्रक्रिया में सराहनीय भूमिका निभायी। आध्ुानिक उद्योग व संचार साध्नों के विकास ने भी एकीकरण की प्रक्रिया को तेज किया।

 

देशी रियासते भारतीय उपमहाद्वीप के 40 प्रतिशत भाग का प्रतिनिध्त्वि करती थी। यहाँ के शासक ब्रिटीश सत्ता को सर्वोच्च मानते थे तथा इनकी स्थिति  अध्ीनस्थ की थी। ये केवल प्रजा के साथ अपना संबंध निर्धरित करने के संदर्भ में स्वतंत्रा थे। ब्रिटीश सरकार इन क्षेत्रों से वित्तीय संसाध्न व मानवीय शक्ति प्राप्त करती थी, जिसके सहारे उसने भारत के शेष 60 प्रतिशत भाग पर प्रत्यक्ष शासन किया। ब्रिटीश साम्राज्य के विरूद्ध होने वाले विद्रोहो का दमन भी इन रियासतो के सहयोग से ही किया। इस प्रकार देशी रियासते ब्रिटीश ‘रक्षा कवच’ के रूप में प्रयुक्त हो रही थी।

 

रियासतों की प्रशासनिक संरचना में निरंकुश्ता व समाज मंे पिछड़ापन विद्यमान था। यहाँ निवास करने वाली प्रजा का जीवन स्तर निम्न था। प्रजा अपनी दयनीय स्थिति के लिए राजा को जिम्मेवार मानती थी। अतः प्रजा राजसी शोषण के विरूद्ध आवाज उठाती रहती थी। 1930 के दशक में यह आंदोलन तेज हो गया। प्रजा के  इन आंदोलनों को कमजोर करने के लिए राजाओं ने ‘धर्मिक पुनरूत्थान’ की सहायता ली। विभिन्न समुदायो द्वारा संचालित शैक्षणिक केन्द्रों, हिन्दू युनिवर्सिटी, दक्कन एजूकेशनल सोसायटी, सिक्ख खालसा काॅलेज, मोहम्मद एंग्लो - ओरिंएटल काॅलेज आदि को अनुदान देना शुरू किया। इस प्रकार उन्होंने स्वयं को आध्ुनिकीकरण का पोषक साबित करने का प्रयास किया।

 

पटियाला, मैसूर एवं हैदराबाद के शासको ने 1857 के विद्रोह के दौरान भारत में ब्रिटीश सत्ता को जो सहयोग दिया था, वह बाद तक जारी रहा। ब्रिटीश साम्राज्य को चीन के बाक्सर विद्रोह के दमन और दोनो विश्वयुद्धों के दौरान यहाँ से सैन्य सहायता मिली। अध्किांश रियासत के शासको ने ब्रिटीश सत्ता को नैतिक समर्थन के साथ-साथ सेना व वित्त से भी सहयेाग दिया। हैदराबाद के शासक ने अकेले 35 लाख रूपये दिए। साथ ही अपने रियासत से लोगों को ब्रिटीश सेना में भर्ती करने की अनुमति भी दी। पटियाला के भूपिन्दर सिंह ने ब्रिटीश सेना भर्ती अभियान में सबसे सक्रिय योगदान दिया। इसके बदले में रियासतो के राजाओं को ब्रिटीश सत्ता ने ‘जन स्वभाविक नेता’ के रूप में मान्यता मात्रा दी। हाॅलाकि रियासतों में शासक के इन निरंकुश निर्णयों के विरूद्ध चल रहे आंदोलनो से स्पष्ट था कि ये जनता के स्वाभाविक नेता नहीं थे। राजाओं को इस प्रकार की वैद्यता देकर ब्रिटीश सत्ता उनका इसतेमाल अपने हितो के अनुकूल करती थी। इन रियासतों की इस मदद से दोनों विश्वयुद्धो के दरम्यान भारतीय स्वतंत्राता आंदोलन जिस लक्ष्य को पाना चाहती थी, उसमें सपफल नहीं हो सकी। इस प्रकार राष्ट्रवादी राजनीतिक एकजुटता के विरूद्ध देशी रियासतो ने एक ढ़ाल का काम किया जिससे ब्रिटीश सत्ता को संरक्षण प्राप्त हुआ।

 

देशी रियासतों के प्रति ब्रिटीश सत्ता की नीति ‘अनूकुलतम उपयोग’ की रही। जब भारतीय बाजार पर ब्रिटीश उत्पादको का प्रभाव बढ़ा तथा रेलवे का विस्तार शुरू हुआ तब संध् िके माध्यम से, प्रशासनिक मामलो में निर्णय लेने हेतु रियासतो के शासकों को रेजीडेंट की सलाह पर निर्भर बना दिया गया। नमक के उत्पादन व इसके निर्यात पर भी प्रतिबंध् लगा दिया गया। रियासतों से गुजरने वाले ब्राँडगेज रेलवे व्यवस्था को भी उनके प्रशासनिक व न्यायिक क्षेत्रा से बाहर रखा गया। 19 वीं सदी के अंत तक ब्रिटीश भारतीय मुद्रा ही रियासतों में विधि मान्य हो गयी तथा रियासतो को अपना सिक्का ढ़ालना भी बंद करना पड़ा। यहाँ भी ब्रिटीश नौकरशाही व्यवस्था को लागू किया गया। इतने बंधनों के बावजूद भी राजागण ब्रिटीश सत्ता के प्रति वपफादार बने रहे क्योंकि ब्रिटीश सत्ता ने राजाओं की राजनीतिक शक्ति को कम करने तथा प्रजा से राजस्व वसूली के उनके अध्किार को कभी बाधित नहीं किया। इस प्रकार राजाओं की शक्ति व विलासिता के संरक्षण के बदले ब्रिटीश साम्राज्य उनसे राष्ट्रीय हितो से समझौता करवाती रही।

 

देशी रियासतो व ब्रिटीश सत्ता के इस प्रकार के उलझे संबंध को अप्रत्यक्ष परिणाम के रूप में रियासतो में आध्ुनिकीकरण की प्रक्रिया का आरंभ हुआ। कई रियासती राज्यो की सेवा में अच्छे प्रशासक भी थे, जिन्होने प्रशासन को उत्तरदायी बनाने की दिशा में पहल की। मैसूर बड़ौदा, त्रावणकोर जैसे रियासतो ने शिक्षा के विकास की पहल की। सन् 1894 में बड़ौदा के गायकवाड़ शासको ने अपने रियासत में मुक्त व अनिवार्य शिक्षा लागू की। 1881 में मैसूर एवं 1887 में ट्रावनकोर ने विधयी समिति का गठन किया। कुछ राज्यों ने औद्योगिक विकास के लिए पूँजी को आकर्षित किया। 1843-44 तक 5 करोड़ रूपये की पूँजी इन क्षेत्रो में निवेश की गयी। उदाहरण स्वरूप मैसूर ने ऊनी वस्त्र, मोटरकार एवं हवाई जहाज निर्माण की अगुआई की। बड़ौदा वस्त्रा                   उत्पादन का प्रमुख केन्द्र बना। हैदराबाद में सीमेंट एवं रासयनिक उर्वरक उद्योग का विकास हुआ। ग्वालियर में सूती वस्त्रा मिल, तेल मिल, पावर स्टेशन, ईंट भट्ठे आदि उद्योगो का विकास हुआ।

 

रियासतों में एक ओर शिक्षा व आध्ुनिक उद्योग के विकास की प्रक्रिया चल रही थी, तो दूसरी ओर प्रजा उत्तरदायी सरकार की माँग को लेकर आंदोलन कर रही थी। इन परिस्थितियों में राष्ट्रीय नेतृत्व को रियासतो के प्रति विशेष रणनीति का पालन करना पड़ा। रियासतो के राजा, ब्रिटीश शासन से अपने भविष्य के लिए सांवैधनिक गारंटी चाहते थे, अतः राष्ट्रीय नेतृत्व ने जनता की लोकप्रिय  आंदोलनो को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया। हरिपुरा कांग्रेस अध्विेशन ;1938द्ध में कांग्रेस ने प्रजा आंदोलन को नैतिक समर्थन देने का प्रस्ताव पारित किया था।  इसके पूर्व क्रांतिकारी, उग्रपंथी एवं अन्य समाजसेवी संस्थाओं ने यहाँ की जनता को प्रेरित करने तथा उनके आंदोलन को संरक्षित  करने का कार्य किया था। चूँकि, कांग्रेस ब्रिटीश सत्ता के विरूद्ध एक प्रमुख राजनीतिक ‘दबाव समूह’ था, अतः उसके समर्थन से प्रजा आंदोलन मजबुत बना। दूसरी ओर प्रजा आंदोलन के राष्ट्रीय आंदोलन से मिल जाने से राष्ट्रीय आंदोलन भी सशक्त हुआ। यही कारण था की स्वतंत्राता के पश्चात् इन रियासतो में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करके ‘प्रजातंत्राीकरण’ के माध्यम से भारत का एकीकरण किया गया। ब्रिटीश साम्राज्य के इस ढ़ाल को भारतीय राष्ट्रवादियों ने जैसे - जैसे स्वतंत्राता आंदोलन के पक्ष में किया, ब्रिटीश साम्राज्य की शक्ति उसी अनुपात में कम होती गयी।

 

देशी रियासतो में प्रजा को कोई अध्किार प्राप्त नहीं था। राष्ट्रीय स्वाध्ीनता संग्राम में ‘जन राष्ट्रवाद’ के विकास के पश्चात् देशी रियासतो की जनता इनकी ओर आकर्षित हुयी। वस्तुतः ब्रिटीश भारत मंे आतंकवादी घोषित होने के बाद क्रांतिकारी विभिन्न रियासतो में ही शरण लेते थे। यह भी एक कारण था जिससे रियासतो की रियासतो की जनता का जुड़ाव राष्ट्रीय विचारो से हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान रियासतो की जनता का जुड़ाव बाह्य विश्व से भी हुआ, जहाँ उनका परिचय स्वशासन, प्रजा का अध्किार, स्वतंत्राता जैसे विचारों से हुआ। अतः यहाँ भी उत्तरदायी सरकार की स्थापना की माँग शुरू हो गयी। 1920-22 के बीच यहाँ खिलापफत आंदोलन व असहयोग आंदोलन के प्रभाव स्वरूप विभिन्न जन संगठनो का उदय हुआ। 1920-30 के बीच लोगों में राजनीतिक जागरूकता आयी तथा 1930 के पश्चात् इसका स्वरूप प्रजा आंदोलन जैसा होने  लगा था। 1935 के एक्ट की संघीय योजना तथा ब्रिटीश प्रांतो में कांग्रेस द्वारा सरकार बनाए जाने से प्रजा आंदोलन प्रेरित हुआ। क्योंकि कांग्रेस अब तक विरोध्ी आंदोलन से  परिवर्तित होकर एक सत्ताधरी दल बन गयी थी, जो उत्तरदायी सरकार की स्थापना की दिशा में महत्वपूर्ण विजय मानी जा सकती है। जनता में आयी इस जागरूकता के बाद कांग्रेस प्रजा आंदोलन के पक्ष में खुलकर सामने आ गयी। 1942 के आंदोलन में कांग्रेस ने देशी रियासतो की प्रजा से  इस आंदोलन में शामिल होने का आग्रह किया तथा रियासतो को भारत का अभिन्न अंग मानने का दबाब ब्रिटीश सत्ता पर डाला। इस तरह से विभिन्न रियासतो व ब्रिटीश भारत का जनसंघर्ष एकीकृत हो गया।

 

1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने देशी रियासतो के प्रति अपनी नीति घोषित की, जिसमें प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से बचना व अप्रत्यक्ष प्रोत्साहन देने की नीति अपनायी गयी थी। 1921 के बाद से रियासतों में व्यक्तिगत रूप से सक्रिय लोग कांग्रेस से जुड़ने लगे थे। मैसूर, हैदराबाद, बड़ौदा, जामनगर, इंदौर, नवानगर, कठियाबाड़ व दक्कन में खिलापफत व असहयोग आंदोलन को सहयोग दिया गया।

 

रियासतों में चल रहे आंदोलन को सुसंगठित स्वरूप देने के उद्देश्य से बबई में दिसम्बर 1927 में ‘आॅल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कान्प्रफेंस’ नामक एक केन्द्रीय संगठन की स्थापना की गयी। बलबंत्तराय मेहता, मणिलाल कोठारी व जी0आर0 अभ्यंकर इसके सक्रिय कार्यकर्ता थे। इस कान्प्रफेंस के प्रथम सत्रा में 700 प्रतिनिध्यिों ने भाग लिया। इसमे प्रजा की आकांक्षाओं के अनुसार प्रशासन में सुधर का लक्ष्य निर्धरित किया गया। इस संगठन ने ऐसे प्रतिनिध् िसरकार की माँग की जो सामान्य प्रशासन व वित्त पर नियंत्राण रखेसाथ ही राजा के निजी व्यय एवं रियासत के राजस्व को अलग - अलग करने तथा स्वतंत्रा व सर्वोच्च न्यायपालिका के स्थापना की भी माँग की। 11 जुलाई 1928 को ए0आई0एस0पी0सी0 का प्रतिनिध् िमंडल संावैधनिक राजतंत्रा की माँग को लेकर ब्रिटेन भी गया। लेकिन ब्रिटीश सरकार रियासतो के संदर्भ मंे उत्तरदायित्व लेने को तैयार नहीं हुयी। इसी वर्ष हुए सर्वदलीय सम्मेलन में यह घोषणा की गयी कि संघीय संविधन अंगीकृत होने पर रियासतो में प्रतिनिध् िसरकार की स्थापना की जाएगी। 1928-29 के कांग्रेस अध्विेशनों में जनता के मूल अध्किारों की घोषणा की गयी। इस प्रकार कांग्रेस रियासती प्रजा के मांगो के निकट होती जा रही थी। उध्र गोलमेज सम्मेलन में भी ए0आई0एस0पी0सी0 की मांग को ब्रिटीश सरकार द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। 1934 के बाद कांग्रेस पर सोशलिस्ट ग्रुप का प्रभाव बढ़ने लगा, इसके बाद कांग्रेस प्रत्यक्ष रूप से प्रजा आंदोलन के पक्ष में आने लगी। 1936 में ए0आई0एस0पी0सी0 ने कृषि संबंध्ी माँग भी प्रस्तुत की। जिसमें भू-राजस्व में 1/3 कमी, ऋण कम करना आदि प्रमुख था। इसके साथ - साथ मूल अध्किार व स्वतंत्राता की बात भी यह संगठन करने लगा।

 

इध्र विभिन्न रियासतों में प्रजा आंदोलन सक्रिय हो रहा था। 1938 में सरदार पटेल ने इस अवसर का लाभ उठाकर, मैसूर में  वहाॅ के दीवान से समझौता करके कांगे्रस को वहाँ वैद्य घोषित करवाया। उड़ीसा एवं हैदराबाद में सत्याग्रह तथा आदिवासी व रियासती सेनाओ में संघर्ष हुआ। उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्रो ने वंदेमातरम् आंदोलन चलाया। प्रजा द्वारा चलाए जा रहे, इस आंदोलन की सराहना 1939 के त्रिपुरी कांग्रेस अध्विेशन में सुभाष चन्द्र बोस ने की  तथा ए0आई0एस0पी0सी0 से मिलकर कार्य करने का प्रस्ताव भी पारित करवाया। इस कदम से प्रजा आंदोलन व कांग्रेस दोनो मजबुत हुआ। सरदार वल्लभभाई पटेल, जमनालाल बजाज, जवाहरलाल नेहरूजे0बी0 कृपलानी आदि नेता रियासतों में विशेष रूप से सक्रिय हुए। गाँधी जी ने भी इन प्रयासों को नैतिक समर्थन दिया।

 

प्रजा आंदोलन व भारतीय स्वतंत्राता संग्राम का सम्मिलन किस प्रकार हुआ, इसे राजकोट व हैदराबाद में चले आंदोलनो के  अवलोकन से समझा जा सकता है। वस्तुतः राजकोट, पश्चिम भारतीय रियासती एजेंसी था, अतः यहाँ चले आंदोलन का असर संपूर्ण पश्चिम भारत पर हुआ। यह पहली रियासत थी, जहाँ शासन में जनता को प्रतिनिध्त्वि दिया गया था। लाखाजी राज यहाँ के प्रबुद्ध शासक थे, जिन्होने न केवल रियासत के शैक्षणिक व औद्योगिक उन्नति पर ध्यान दिया था, बल्कि राष्ट्रवादी गतिविध्यिों को भी प्रोत्साहित किया था। यहाँ 1921 में प्रथम काठियावाड़ राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता विट्ठभाई पटेल ने की थी। लाखाजी राज गाँध्ी व नेहरू का अपने दरबार में स्वागत करते थे। इतना ही नहीं उन्होने स्वयं खादी भी धरण किया था तथा स्कूलो  को भू-अनूदान दिया। इस प्रकार राजकोट के शासक स्वयं आध्ुनिकीकरण व राष्ट्रवादी गतिविध्यिों के पोषक थे। लेकिन 1930 में इनकी मृत्यु के पश्चात् यहाँ उनके द्वारा संचालित गतिविध्यिों पर रोक लग गया। अब  राजा की ओर से राष्ट्रवादी व आध्ुनिक तत्वो को प्रोत्साहन देना बंद हो गया। लेकिन प्रजा अपने स्तर से आंदोलन चलाती रही। यू0एन0 धेबर ने यहाँ गाँध्ी द्वारा निर्देशित रचनात्मक कार्यो का संचालन किया। 1936 में जेठलाल जोशी व यू0एन0 धेवर में यहाँ मजदूर यूनियन बनाया। इस प्रकार आंदोलन का पफलक विस्तृत होता गया। 1937 में काठियाबाड़ राजनीतिक परिषद् कांप्रफेंस का आयोजन किया गया। जिसमें पन्द्रह हजार लोगो ने उत्तरदायी सरकार की माँग की। इन माँगो के पक्ष में हुए प्रदर्शन में शासन द्वारा प्रदर्शनकारीयों पर लाठीचार्ज किया गया। इसके विरूद्ध सरदार पटेल के नेतृत्व मे सभा की गयी जिसमंे कर में 15 प्रतिशत तक की कटौती करने तथा रियासत के राजस्व पर शासक का अध्किार सीमित करने की माँग की गयी। लेकिन दरबार ने इसकी ओर ध्यान नहीं दिया। पफलतः यहाँ सत्याग्रह शुरू हो गया, मजदूर हड़ताल करने लगे, छात्रो ने शिक्षण संस्थान व वस्तु बहिष्कार किया, लोगों ने कर चुकाने से इंकार कर दिया तथा बैंक से अपनी राशि वापस ले ली। इस प्रकार रियासत के वित्तीय स्रोतांे को आंदोलनकारियों ने रोक दिया। इस आंदोलन का संगठन व नियोजन इतना मजबुत था कि एक नेता के गिरफ्रतारी के बाद तुरंत उसका स्थान दूसरा नेता ले लेता था। अगर, आंदोलनकारीयो के माँगो को मान लिया जाए तो इससे कांग्रेस के प्रभाव में वृद्धि हो सकती है, इस संभावना को भाँपते हुए, ब्रिटीश सरकार ने दरबार पर समझौता ना करने का दबाब बनाया। लेकिन 26 दिसम्बर 1938 को राजकोट दरबार सरकार पटेल से समझौता करने को विवश हो गयी। इस समझौते के अनुसार रियासत ने राजनीतिक कैदियो को रिहा किया तथा कुछ सुधर योजनाएँ लागू करने की भी घोषणा की। शासन में 10 राज्याध्किारी जनता के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त करने की भी घोषण की गयी। इन दस राज्याधिकारीयों में से सात की सूची पटेल द्वारा दी जानी थाी। पटेल द्वारा दी गयी सूची को ब्रिटीश दबाब में आकर दरबार में अस्वीकार कर दिया। दरबार में बताया कि इस सूची में केवल ब्राह्मण और बनिया का नाम है। राजपूत, मुस्लिम एवं दलित इस सूची में नहीं है। अतः यह सूची जातिगत व सांप्रदायिक रूप से भेद भावपूर्ण है, अतः दरबार इसे नहीं मान सकती। दरबार के इस विश्वासघात के विरूद्ध 26 जन 1939 से पुनः सत्याग्रह शुरू किया गया। देशभर में दरबार के इस निर्णय के विरूद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त की गयी। गाँध्ी जी ने सरदार वल्लभभाई पटेल के पक्ष में अनिश्चित कालीन अनशन की घोषणा कर दी। कांग्रेस ने भी प्रांतीय सरकारो से इस्तीपफे की ध्मकी दी। इस प्रकार इस छोटे से रियासत में हुए इस बड़े बदलाव से ब्रिटीश सत्ता इतनी आतंकित हो गयी कि  वाइसराय को इस मामले में स्वयं हस्तक्षेप करना पड़ा। वाइसराय के आश्वासन के बाद गाँध्ी जी ने अपना अनशन समाप्त किया। संपूर्ण मुद्दे की छानबीन करने के लिए मारिस गायर आयोग बनाया गया। इस आयोग ने 3 अप्रैल 1939 को अपने रिर्पोट में  पटेल के पक्ष को सही ठहराया। इसके पहले कि दरबार पटेल के समक्ष झुकती, जिन्ना व अंबेडकर दरबार के पक्ष मंे आ गये। इन्होने गाँध्ी जी का विरोध् शुरू कर दिया। गाँध्ी  जी ने विवश होकर समझौते से दरबार को मुक्त कर दिया तथा वाइसराय से क्षमा भी मांगी। इस तरह से यह आंदोलन अपेक्षित उद्देश्य प्राप्त नहीं कर सका। इस बार सांप्रदायिक राजनीति व दलित उत्थान आंदोलन प्रजाआंदोलन के विरूद्ध खड़ा हो गया। वस्तुतः  इस संदर्भ में जिन्ना एवं अम्बेदकर दोनो ही राजतंत्रा व ब्रिटीश सत्ता के द्वारा उनके पक्ष में प्रयुक्त हो गए।

 

इस एक राजकोट रियासत के उदाहरण से कई चीजे एक साथ स्पष्ट होती है। जैसे - राजशाही निरंकुशता के विरूद्ध एक सुसंगठित आंदोलन चल रहा था, जिसे स्थानीय प्रजा व राष्ट्रीय नेतृत्व दोनो का सहयोग प्राप्त था।  सांप्रदायिकता तथा दलित उत्थान आंदोलन की विकृतियाँ इसके समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ थी। हैदराबाद में भी इसे प्रत्यक्ष रूप से देखा गया है, जहाँ आर्य समाज के प्रभाव को रोकने के लिए उस पर तरह - तरह की पाबंदीयाँ लगायी गयी। 1938 में मराठी संत रामतीर्थ ने इसके विरूद्ध सत्याग्रह किया। वंदेमातरम् पर लगे प्रतिबंध के विरूद्ध ‘वंदेमातरम् आंदोलन’ हुआ। सरोजनी नायडु ने यहाँ आंदोलन हेतु महिला दस्ता भी तैयार किया था। गाँध्ी जी के रचनात्मक आंदोलन के प्रभाव स्वरूप यहाँ नशाबंदी आंदोलन चला, पुस्कालय खुले, समाचार-पत्र - पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया गया। विदित है कि इन आंदोलनो के विरूद्ध वहाँ के निजाम ने सांप्रदायिक राजनीति का सहारा लिया था।

 

राजकोट व हैदराबाद के उदाहरण से देश के सारे रियासतो व ब्रिटीश भारत की समान समस्याएँ तथा आंदोलनो के बीच की समानता को भी समझा जा सकता है। ये समान समस्याएँ थी - 1 भारी कर, 2 निरक्षरता, 3 पिछड़पन आदि। आंदोलन के स्वरूप में जो समानताएँ थी, उनमें भूमिगत गतिविधियाँ, आंदोलन का  हिंसात्मक स्वरूप, क्रांतिकारी आंदोलन के बाद वामपंथ के प्रभाव में वृद्धि आदि को गिना जा सकता है।

 

राजकोट के आंदोलन की तीक्ष्णता का संदेश रेलवे, टेलीग्राम व समाचार पत्रो के माध्यम से संपूर्ण देश भर में पफैल गया थाजिससे रियासतो में चल रहे प्रजा आंदोलन को बल मिला था। क्योंकि राजकोट आंदोलन की प्रतिरोध् की शक्ति ने  रियासतो में हस्तक्षेप ना करने वाले ब्रिटीश सरकार के वाइसराय को, हस्तक्षेप करने को बाध्य कर दिया था। अतः अन्य रियासतो में भी आंदोलन तेज हो गया, तथाा कांग्रेस भी अब खुलकर इन आंदोलनो के पक्ष में आ गयी। 1942 तक कांग्रेसी आंदोलन व प्रजामंडल आंदोलनो में कोई पफर्क नहीं रह गया। अब जनता सीध्े टकराव की स्थिति में आ चुकी थी।

 

1942 के आंदोलन में सभी प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं के गिरफतारी के बाद भी यह लंबे समय तक चलता रहा। ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ के गिरफ्रतार अफसरो पर चल रहे मुकदमों के विरूद्ध जनता सड़कों पर आ गयी। पफरवरी 1946 में आजाद हिन्द पफौज के कैदियो की रिहाई की माँग को लेकर नौसैनिको ने विद्रोह किया, तो इन्हे भी जनता का समर्थन मिला। इस जनसंघर्ष कि सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह सांप्रदायिकता से परे था। तभी तो जिन्ना व पटेल दोनों एक साथ इस आंदोलन के पक्ष में आए थे। 1946 में 1,629 बार मजदूरों ने काम ठप्प किया तथा 60 लाख किसान भी आंदोलन में सहभागी बने।

स्थितियाँ बड़ी तेजी से बदल रही थी।  द्वितीय विश्वयुद्ध से हुयी आर्थिक क्षति से त्रास्त ब्रिटेन को भारत में भी इन आंदोलनों की वहज से गंभीर आथिकि क्षति उठानी पड़ी। दूसरी ओर भारतीय अर्थव्यवस्था में आंतारिक व्यापार तेजी से बढ़ा तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर उसकी निर्भरता कम हो गयी। अब भारत एक ऋणग्रस्त देश नहीं रह गया था। भारतीय बाजार के 72 प्रतिशत हिस्से पर भारतीय उद्योगो का कब्जा हो गया था। वही दूसरी ओर, बदल रहे वैश्विक परिदृश्य में साम्राज्यवाद की समाप्ति व लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की स्थापना का दबाव भी ब्रिटेन पर था। भारत में 1945 - 47 0 के बीच जनता जिस प्रकार से प्रत्यक्ष टकराव की स्थिति में आ गयी थी। इससे यह स्पष्ट था कि प्रजा आंदोलनो ने यहाँ लोकतंत्रा की स्थापना के लिए ध्रातल तैयार कर दिया है। दूसरे शब्दो मे कहे तो, प्रजा आंदोलनो व भारतीय स्वतंत्राता आंदोलन ने मिलकर ब्रिटीश उपनिवेशवाद द्वारा अपनी रक्षा के लिए संरक्षित रखे गए सामंतशाही के अवशेष को पराजित कर दिया था। इस प्रकार से अब ब्रिटीश साम्राज्य का आर्थिक व राजनीतिक दोनों आधर खिसक गया था। अब भारत में उनका एक शासक के रूप में बना रहना संभव नहीं था। अतः उन्होंने 15 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरण का निर्णय लिया।

 

भारतीय इतिहास कि यह विडंबना ही है कि देशी रियासतों के जिस प्रजा आंदोलन ने कांग्रेस को प्रजातंत्राीकरण के लिए बल प्रयोग का साहस दिया थाउस संघर्ष की साकारात्मक शक्तियों का प्रयोग भारत विभाजन के विरूद्ध नही हो सका। वस्तुतः शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण की तीव्र इच्छा के कारण ऐसा हुआ। ब्रिटीश शक्ति परिस्थितियों व भारतीय स्वतंत्राता आंदोलन के दबाव स्वरूप भारत को स्वतंत्राता देने को तैयार तो हो गयी थी, किन्तु भारत में छिपे अपने आर्थिक लाभ का मोह वह छोड़ नहीं पायी थी। अत:  वह भारत में सांप्रदायिकता व विभाजनकारी शक्तियों को भी बढ़ावा दे रही थी। किन्तु 1946 में उसने जनसंघर्ष की वह शक्ति देखी, जो सांप्रदायिक व जातिगत भेेद-भाव से उपर थी। इसमें विभाजनकारी शक्तियों को सामाप्त करने की भी क्षमता थी, जो मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक राजनीति को विपफल कर सकती थी। ऐसा हो जाने से भारत ‘नव उपनिवेशवादी’ दुष्प्रभावों से सुरक्षित हो सकता था। लेकिन, इससे पहले की जनसंघर्ष में छिपी इस संभावना को समझ कर इसे भारत विभाजन के विरूद्ध खड़ा किया जाता, ब्रिटीश सरकार ने नियत समय से पूर्व ही भारत को सत्ता हस्तांतरित करने की घोषणा कर दी।

 

शिक्षाविदों के पास रोचक ढंग से छात्रों तक अध्ययन सामग्री व प्रेरक संदेश पहुंचाने के ढेरों तौर-तरीके हैं, पर मूल बात यही है कि क्या मौजूदा व्यवस्था शिक्षा में इन नैतिक मूल्यों को समुचित महत्व देने को तैयार है? तर्कसंगत बात तो यह है कि यदि नैतिक शिक्षा ठीक से दी जाए तो यह शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। पर आज जब धन-अर्जन की क्षमता हासिल करने को सर्वाधिक महत्व दिया जा रहा है, इन नैतिक मूल्यों को शिक्षा में कितना महत्व मिल पाएगा यह सवाल हमारे सामने हैं।

 

संदर्भ

1.       Ashton, S.R. British Policy towards the Indian States, 1905 – 1939, New Delhi, 1985.

2.       Bayly, C.A. Local roots of Indian Politics, Allahabad, 1880 – 1920, (1973).

3.       Handa , R.L., History of Freedom Movement in Princely states, New Delhi, 1968.

4.       Sitaram ayya, P., History of Indian  National congress, Bombay, 1936.

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6ण्  हरिजन पत्रिका में महात्मा गाँध्ी के लेख

 

 

 

Received on 13.07.2014

Revised on 25.07.2014

Accepted on 30.07.2014     

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Research J. Humanities and Social Sciences. 5(2): April-June,  2014, 233-238