हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचन्द्र का योगदान
प्रो. डी.पी. चन्द्रवंशी
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, शास. जे.एम.पी. महाविद्यालय तखतपुर, बिलासपुर (छ.ग.)
साररू
‘‘हिन्दी साहित्य में उपन्यास लेखन का श्रीगणेश भारतेन्दु युग से होता है। किन्तु हिन्दी उपन्यास को नवजीवन देने वाले शख्स कोई है तो वह हैं कलम के सिपाही। इस सिपाही ने उपन्यास के माध्यम से समाज के कोने-कोने पर नजर दौड़ायी चाहे वह निम्नवर्ग हो या निम्न मध्यमवर्ग या फिर मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग। सामाजिक वर्ण व्यवस्था ब्राम्हण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र की स्थितियों को भी बड़े ही गांभीर्य तौर पर समाज के समक्ष रखा। सेवा संदन से लेकर गोदान तक का सफर सामाजिक यथार्थता का ज्वलंत उदाहरण है।’’
प्रस्तावना
गांधी जी ने भारतीय समाज को सुधारने के लिए जो कुछ कहा उसे ‘सत्यं-शिवं-सुन्दरं’ के रूप में हिन्दी गद्य साहित्य में साकार रूप प्रदान करने वाला, गाँधीजी को जैसी भाषा प्रिय थी उसी भाषा को लिखने वाला यदि कोई साहित्यकार हुआ तो वे प्रेमचन्द ही हैं। निःसंदेह वे गाँधी वादी विचारधारा के अनन्य उपासक थे। गाँधीजी की भाॅंति प्रेमचन्द ने भी भारत की जनता को हृदय के नेत्रों से देखा था। गाँधीजी ने भी राजनीति और समाज सुधारों का गठबन्धन कर दलित जातियों के उद्धार, मादक द्रव्यों के निषेध, अस्पृश्यता निवारण, स्त्रियों की उन्नति, प्रौढ़ शिक्षा आदि पर बल देते हुए अपना अठारह सूत्रीय रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किया। प्रेमचन्द पर उनका भी प्रभाव पड़ा। भारतीय नारी को घर की कारा से निकालने का श्रेय गाँधीजी के आन्दोलनों को ही है। प्रेमचन्द के नारी पात्र भी इसी जागृति के प्रतीक है। प्रेमचन्द का उपन्यास साहित्य अपने युग की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक प्रवृत्तियों का पूर्ण प्रतिनिधित्व करता है, वह युग का दर्पण है। इसीलिए कहा गया है कि यदि प्रेमचन्द युग के भारत का इतिहास नष्ट भी हो जाय, तो भी प्रेमचन्द साहित्य द्वारा उसका पुनर्निर्माण हो सकता है। प्रेमचन्द को केन्द्र मानकर हिन्दी उपन्यास के विकास को निम्न युगों में विभाजित किया जा सकता है- 1. प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यास, 2. प्रेमचन्द युगीन उपन्यास, 3. प्रेमचन्दोत्तर उपन्यास।
प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती उपन्यास
जासूसी, तिलिस्मी, ऐय्यासी उपन्यास-प्रेमचन्द के पूर्व का उपन्यास साहित्य जासूसी, तिलस्मी, अय्यारी और काल्पनिक रोमांस से युक्त होने के कारण मानव के यथार्थ जीवन से बहुत दूर था। ये उपन्यास कौतूहल की सृष्टि कर केवल मनोरंजन के साधन थे। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों के द्वारा युगान्तर उपस्थित किया। यदि उपन्यास को मानव जीवन का महाकाव्य और मानव चरित्र का चित्रण माना जाये, तो प्रेमचन्द के पूर्व का हिन्दी-उपन्यास इससे दूर था। इस दृष्टि से प्रेमचन्द को ही हिन्दी का मौलिक उपन्यासकार माना जा सकता है। प्रेमचन्द से पूर्व हिन्दी का उपन्यास साहित्य अपनी शैशवास्था में था और वह विकास की दिशा खोज रहा था। प्रेमचन्द उपन्यास साहित्य में युगान्तर लेकर अवतरित हुए। प्रेमचन्द के परवर्ती उपन्यासकारों ने किसी न किसी रूप में प्रेमचन्द का अनुकरण किया।
आज हिन्दी उपन्यास साहित्य विकसित होकर पुष्ट हो चुका है। उसमें शैली-शिल्प और विषय वस्तु की दृष्टि से नये-नये प्रयोग हुए हैं और असंख्य उपन्यास लिखे गये हैं, परन्तु हिन्दी उपन्यास क्षेत्र में प्रेमचन्द जैसा युग दृष्टा उपन्यासकार नहीं हुआ। प्रारम्भ से लेकर अब तक हिन्दी उपन्यास जगत में प्रेमचन्दजी उपन्यास सम्राट का पद पाने के अधिकारी ळें
प्रेमचन्दयुगीन उपन्यास एवं प्रेमचन्द का उपन्यास क्षेत्र में स्थान, महत्व और योगदान
प्रेमचन्द के उपन्यास भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करते हैं। उनके उपन्यासों में आदर्शोन्मुख यथार्थ के चित्रण द्वारा जीवन संघर्ष और चेतन जगत का सुन्दर चित्रण हुआ है। उनका ‘गोदान’ भारत के समाज का यथार्थ और पूर्ण चित्र उपस्थित करने वाला महाकाव्यात्मक उपन्यास है। प्रेमचन्द्र का महत्व स्पष्ट करते हुए कहा गया है- ‘गोदान’ के रचयिता प्रेमचन्द जी हिन्दी के वर्तमान ओर भविष्य के निर्देशक हैं।
प्रेमचन्द उस शिखर के समान है, जिसके दोनों और पर्वत के दोनों भागों के उतार-चढ़ाव है।
प्रेमचन्द और उनके समकालीन अन्य उपन्यासकारों का मुख्य लक्ष्य मानव जीवन का चित्रण करना था। प्रेमचन्द के सेवा सदन प्रेमाश्रय रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन, गोदान, आदि मौलिक उपन्यासों में जीवन और समाज की अभिव्यक्ति बड़ी सफलता के साथ हुई है। इन उपन्यासों में वस्तुचित्रण, कथोपकथन आदि के प्रौढ़तम रूप में दर्शन होते हैं। इनके माध्यम से निम्न और मध्यम वर्ग के सुन्दर चित्र सामने आये और साथ ही राष्ट्रीय भावना को भी बल मिला आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेमचन्द के महत्व को व्यक्त करते हुए लिखा है।
प्रेमचन्द शताब्दियों से पददलित, अपमानित उपेक्षित कृषकों की आवाज थे। पर्दे मे कैद पग-पग पर लांछित और असहाय नारी जाति की महिमा के जबर्दस्त वकील थे। गरीबों और बेबसों के प्रचारक थे। अगर आप समस्त उत्तर भारत को चाहते हैं तो प्रेमचन्द से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता। ‘झोपड़ियों’ से लेकर महलों तक आपको इतने ही कौशलपूर्ण और प्रामाणिक भाव से कोई नहीं ले जा सकता।
प्रेमचन्दोत्तर उपन्यास
प्रेमचन्द ने जिस क्षेत्र में कार्य किया था, उसमें उनके उत्तराधिकारी क्रम का आरंभ हुआ। प्रकाशचन्द्र गुप्ता ने प्रेमचन्द के उत्तराधिकारी उपन्यासकारों की स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा है- ‘प्रेमचन्द की किसान परम्परा को तजकर हिन्दी उपन्यास अनेक नई दिशाओं की ओर बढ़ा, तत्व और रूप दोनों की दृष्टि से एकधारा निम्नवर्ग के जीवन, उसकी निराशाओं और असफलताओं को अपनाती है। इसके प्रमुख परिचायक जैनेन्द्र, भगवती प्रसाद बाजपेयी, अश्क आदि हैं। दूसरी धारा व्यक्तिवादी, अहंवादी आदि नाशवादी दृष्टिकोण को अपनाती है। इसके प्रतिनिधि भगवतीचरण वर्मा ‘अज्ञेय’ आदि है। एक धारा मनोविश्लेषणशास्त्र के प्रभाव से कुण्ठित अतृप्त वासनाओं को अभिव्यक्त करती है। इसके प्रमुख प्रतिनिधि पण्डित इलाचन्द जोशी है। एक अन्य धारा भारतीय श्रमजीवी वर्ग की छिपी शक्तियों से संबंध जोड़ती है और भविष्य की धरती को संजोती है। इसके प्रमुख प्रतिनिधि यशपाल, रांगेय राधव, पहाड़ी, भगवतशरण उपाध्याय, नागार्जुन आदि हैं।
प्रेमचन्द उपन्यास जगत को देन
प्रेमचन्द का उपन्यास सृजन सन् 1902 में प्रांरभ हो जाता है। इस समय आपकी आयु केवल 22 वर्ष की थी। आपके टैगोर की कहानियों के अनुवाद उर्दू पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।
आपकी सबसे पहली कहानी ‘संसार का सबसे अनमोल रत्न’ सन् 1900 में जमाना पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी। इसी वर्ष आपने ‘कृष्ण‘ नामक उपन्यास की भी रचना की। सन् 1902 में ‘वरदान‘ तथा सन् 1902 में ही ‘प्रेमा‘ और 1906 में ‘प्रतिज्ञा‘ उपन्यास की रचना की सन् 1908 में जमाना प्रेम से ‘सोजे वतन‘ के नाम से पाॅंच कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ जो सरकार द्वारा जप्त कर लिया गया। आप नवाबराय के नाम से कथा साहित्य की रचना करते रहे। सोजे वतन की जप्ती के पश्चात् प्रेमचन्द के नाम से लिखने लगे और उर्दू से हिन्दी की ओर आ गये। ‘सेवासदन‘ प्रेमचन्द का प्रथम उपन्यास है। यह सन् 1916 में प्रकाशित हुआ इससे पूर्व आप ‘वरदान‘ ‘प्रतिज्ञा‘ या ‘प्रेमा‘ और ‘रूठी रानी‘ उपन्यास लिख चुके थे।
‘रूठी रानी‘ एक छोटा सा ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें राजपूती वीरता के साथ परस्पर की उस फूट का चित्रण किया गया, जिसके कारण देश पराधीन हुआ। सन् 1901 में आपने ‘प्रतापचन्द‘ नामक उपन्यास लिखा जिसे सन् 1902 में ‘वरदान‘ नाम से प्रकाशित किया। सन् 1903 में प्रकाशित ‘प्रेमा‘ उपन्यास पहले उर्दू में हमखुर्मा और हम कबाव के नाम से प्रकाशित हो चुका था। बाद में प्रेमचन्द्र ने ‘प्रेमा‘ में बहुत अधिक परिवर्तन कर दिया और वह हिन्दी में ‘प्रतिज्ञा‘ और उर्दू में ‘बेवफा‘ नाम से प्रकाशित हुआ। प्रेमचन्द ने इन उपन्यासों का कला की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है। ‘सेवा सदन‘ ही आपका महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसके पश्चात् प्रेमचन्द के निम्नलिखित उपन्यास प्रकाशित हुए - प्रेमाश्रम (सन् 1922), निर्मला (सन् 1923), रंगभूमि (सन् 1924-25), कायाकल्प (सन् 1928), गबन (सन् 1931) कर्मभूमि (सन् 1932), गोदान (सन् 1936)।
प्रेमचन्दजी ने अपने जीवन के प्रत्येक पहलू को सच्चाई के साथ वर्णन करके उपन्यास साहित्य को जीवन की पूर्णकृति बनाने का अनुपम प्रयास किया है। तत्कालीन सच्ची परिस्थितियों क चित्रण आपके उपन्यासों में मिलता है।
प्रेमचन्द्र-कर्मभूमि
’कर्मभूमि’ की कथावस्तु भारत के स्वाधीनता आन्दोलन की कहानी का एक अंश है। यही कारण है कि केवल युगीन घटनाओं का विवरण मात्र नहीं है। उसमें रोचकता भी पूर्णतः विद्यमान है। प्रस्तुत उपन्यास की कथावस्तु जहाॅ राजनीति समाज, धर्म एवं शिक्षा के विशाल क्षेत्र का चित्र प्रस्तुत करती है। वहीं यथार्थ की भूमि पर चित्रित हुई ये घटनाएॅ उनको सूत्रबद्ध करने की क्षमता भी रखती है। जिससे वे असंगठित न जान पड़े।
’कर्मभूमि’ उपन्यास का कलेवर दो अंचल की कथाओं का मिश्रण है। एक काशी नगरी की और दूसरी हरिद्वार के समीपस्थ गाॅव की। दोनों कथाओं के सूत्र अमर के माध्यम से जुड़ते है। नगर की कथा अछूतोद्धार एवं श्रमिकों तथा मजदूरों की आवासी व्यवस्था से संबधित है। अछूतों के मन्दिर प्रवेश के लिए प्रो. शान्तिकुमार एवं सुखदा द्वारा सत्याग्रह किया जाता है, गोली चलती है और अन्त में उन्हें मन्दिर प्रवेश का अधिकार मिल जाता है। मजदूरों की आवास की व्यवस्था के लिए बोर्ड में प्रस्ताव रखा जाता है। अमर की पत्नी सुखदा हड़ताल कराती है, सरकारी दमनचक्र चलता है और सुखदा, शान्तिकुमार, अमरकान्त, सकीना आदि सभी जेल जाते है।
ग्राम की कथा अछूत किसानों की दुरावस्था से संबंधित है। अमर की प्रेरणा पाकर किसान लगान बन्दी आन्दोलन करते हैं। सरकार निर्ममतापूर्वक उसे कुचलने की चेष्टा करती है। अमर किसानों को भड़काने के अपराध में पकड़ा जाता है और जेल भेज दिया जाता है। ’गोदान’ उपन्यास की तरह इस उपन्यास की नगर और गाॅव की कथा अलग-अलग प्रतीत नहीं होती। ’गोदान’ की भाँति प्रेमचन्द के इस उपन्यास में भी गाॅव और नगर की कथा वर्णित है। इतने विशाल कथाचित्र फलक को लेकर सुसंगठित रूप में प्रस्तुत करने की प्रेमचन्द की प्रतिभा अनुपम है।
प्रेमचन्द-रंगभूमि
’रंगभूमि’ की आधिकारिक कथा काशी के बाहरी भाग में बसे पांडेपुर गाॅंव की है। गरीबों की बस्ती है - ग्वाले, मजदूर, गाड़ीवान और खोमचे वालों की बस्ती। इन्हीं में एक गरीब और अन्धा चमार रहता है-सूरदास। भिखारी है और पुरखों की 10 बीघा धरती भी उसके पास है, जिसमें गाॅंव के ढ़ोर चरते-विचरते है। सामने ही एक खल का गोदाम है, जिसका आढ़ती है जानसेवक-सिगरा मुहल्ले का निवासी एक ईसाई इस जमीन पर उसकी बहुत दिनों से निगाह है सिगरेट का कारखाना खोलने के लिए सूरदास किसी भी तरह अपने पुरखों की निशानी उस धरती को बेचने के लिए जब राजी नहीं होता है तो जानसेवक अधिकारियों से मेलजोल का सहारा लेकर उसे हथियाना चाहता है अपनी बेटी सोफिया के माध्यम से राजा भरतसिंह और उनके परिवार के जानसेवक का परिचय सम्बम्ध स्थापित होता है।
राजासाहब के परिवार में चार प्राणी है- पत्नी रानी जाहा्रवी, पुत्री इन्दु और पुत्र विनय। आधिकारिक कथा के साथ जुड़ने वाला प्रथम प्रबलतम कथासूत्र सोफिया और विनय का परस्पर हृदय दान है। विनय को जनता के लिए बलिदान करना पड़ता है और सोफिया गंगा में समा जाती है। आधिकारिक कथा और सहायक कथाओं के साथ प्रासंगिक कथाएॅं भी सुभागी और भैरों की उपकथा पांडेपुर में उपजती है तथा ग्रामीणजनों की स्वार्थपरता, पारस्परिक कलह, ईष्र्या-द्वेष, सहयोग एवं सहानुभूति आदि के रूप में गाव के सामूहिक जीवन का चित्र उभारकर विलीन हो जाता है ग्रामीण जीवन, राव-राजे, किसान-नागरिक, पूॅंजीपति और उनके अधीनस्थ मजदूर आदि की मानसिक विचार धारणाएॅं प्रकट करना रंगभूमि का उद्देश्य है। भारतीय समाज जो सदियों से रूढ़िग्रस्त, अन्धविश्वासी और ग्रस्त होने के कारण मूक था, प्रेमचन्द ने उसके मौन को तोड़कर रंगभूमि में उसे वाचाल बना दिया है।
‘यदि हिन्दी उपन्यास पर सरसरी नजर भी डाली जाये तो लगता है कि आधुनिकता के जीवन की शुरूआत गोदान (1934-36) में मानी जा सकती है। इसके आसपास कथाकारों की संवेदना में अंतर आने लगा था।
प्रेमचन्द गोदान
‘गोदान‘ में अनेक परिवारों की कथा है, जो मिलकर एक विराट एवं सामाजिक परिवेश का निर्माण करती हैं। होरी का परिवार इसमें सर्वप्रमुख है। वह बिलारी गाॅंव का किसान है जहाॅं के जमींदार रायसाहब अमरपालसिंह है। होरी राय साहब के यहाॅं अक्सर जाता है और उनके मॅुह लगा है। कथानक का प्रांरभ होरी की गाय पालने की इच्छा से होता है। पड़ोस गाॅंव के ग्वाले भोला से उसकी भेंट हो जाती है। भोला की अनेक गायें थी उनमें से एक पर होरी का मन ललचा उठता है। भोला के सामने भूसे की कठिनाई थी। होरी के पास भूसा प्रचुर मात्रा में था। होरी का पुत्र गोबर राय साहब को ढोंगी और सियार बताता है। बीच में होरी भोला से गाय प्राप्त करने उसे भूसा देने और भोला का विवाह करा देने के आश्वासन का उल्लेख करता है। गाय आ जाने से घर में प्रसन्नता की लहर छाई हुई है। गाॅंव के साहूेकार झिंगुरसिंह की दृष्टि होरी की गाय पर है। होरी के दो भाई शोभा और हीरा है। हीरा गाय को जहर देता है। गाय मर जाती है होरी की आर्थिक स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती जाती है। होरी गोबर के बच्चे के दूध के लिए गाय लेने का प्रयत्न करता है। उसके लिए वह अपनी पत्नी धनिया सहित एक ठेकेदार के यहाॅं कंकड खोदने का काम करता है। कंकड़ खोदते हुए होरी को लू लग जाती है। उसे घर लाया जाता है। वह धनिया से कहता है कि ’गोदान करा’ दो अब सही समय है। ‘धनिया‘ ने आज सुतली बेचकर बीस रूपये प्राप्त किये थे। वह उनको होरी के हाथों पर रखकर सामने खड़े दातादीन से कहती है- महाराज घर में गाय है न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है। होरी की मृत्यु और धनिया के पछाड़ खाकर गिरने के साथ कथानक समाप्त हो जाता है।
जीवन के कुछ अनुभवों से प्रेमचन्द इस परिणाम पर पहुॅंचते है कि सामन्ती एवं पूंजीवादी दोनों प्रकार के शोषण से मुक्ति मिलने पर ही भारतीय जनता का उद्धार हो सकता है। इसलिए गोदान में उन्होंने एक साथ सामन्ती और पूंजीवादी शोषण की प्रतारणाओं का चित्रण किया है।
प्रतारणाओं का अंत होने पर ही समानता के आधार पर जो वर्गहीन समाज स्थापित होगा, उसमें ही होरी का स्वप्न साकार होगा और सभी सुखी होगें।
‘गोदान‘ का प्रकाशन सन् 1936 में हुआ था, उसमें प्रेमचन्द की विचारधारा और गोदान का उद्देश्य संदेश स्पष्ट हो जाता है।
प्रेमचन्द-गबन
‘गबन‘ उपन्यास की कथावस्तु में एक सामाजिक समस्या नारियों की आभूषण प्रियता और मध्यमवर्गीय परिवार या समाज की शेखी या झूठी मान प्रतिष्ठा के प्रदर्शन के कुपरिणामों का उल्लेख है। इस उपन्यास की मुख्य कथा में कई उपकथाएॅं आकर मिल गई हैं। मुख्य कथा है कि रमानाथ एक मध्यवर्गीय परिवार का लापरवाह और उत्तरदायित्वहीन व्यक्ति है जो अपनी पत्नी को खुश करने के लिए झूठी शान शौकत का बखान करके अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखना चाहता हैं। इसके लिए वह सर्राफों से उधार और कर्ज लेकर अपनी डींगें मारने में नहीं चूकता है। वह बहुत ही भीरू और कायर भी है। उसकी पत्नी जालपा किसी भी बात से बढ़कर आभूषणों को ही महत्व देती है। लेकिन रमानाथ चून्गी की नौकरी से पैसे लेकर कर्ज देने के कारण उसको अदा नहीं कर सकता है। वह भागकर कलकत्ता चोर की तरह एक देवीदीन नामक खटीक के यहाँ गुजरकर लेना कबूल कर लेता है। पुलिस के पंजे में आकर के क्रांतिकारियों के विरूद्ध झूठी सहायता करना मंजूर कर लेता है फिर भी अपनी वास्तविकता को दिलों के साथ न तो अपनी पत्नी जालपा को और न घरवालों को ही सूचित करता है। कभी तो बयान बदलना चाहता है कभी पुलिस के डर से बयान दे देता है। उसकी कायरता का नकाब तब उतरता है जब जालपा और देवीदीन उसे घृणा की ठोकरें मारते हैं। उससे वह अन्त में अपने बयान को बदलकर क्रांतिकारियों को सजा से बरी कराकर के स्वयंबरी हो जाता है।
प्रेमचन्द ने इस उपन्यास में नारी की आभूषण प्रियता से उत्पन्न दुष्परिणामों झूॅठी मानमर्यादा के प्रदर्शन के परिणामों अनमेल विवाह के परिणामों आदि का चित्रण करके इससे दूर रहने का सुझाव और बोध दिया है। तत्कालीन समस्याओं का चित्रण करके इससे सावधान या दूर रहने का उन्यासकार ने सुझाव अप्रत्यक्ष रूप से दिया है यही इस रचना का उद्देशय है।
प्रेमचन्द सेवासदन
‘सेवासदन‘ एक सामाजिक उपन्यास है। इसमें समाज में प्रचलित विभिन्न जातियों अनेकानेक विचार पद्धतियों मान्यताओं एवं मर्यादाओं का पूर्णरूप से ध्यान रखा गया है। साथ ही पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं का बड़ा ही मनोहारी वर्णन है। कथावस्तु आर्थिक विपन्नता, रिश्वतखोरी, दहेज प्रथा, अनमेल विवाह, नारी जीवन की समस्या एवं सम्मानित लोगों पर करारे व्यंग्यों से परिपूर्ण है। घटनाएॅं काल्पनिक न होकर यथार्थ धरातल पर अवस्थित है। यथार्थपरकता एवं अनुभूति की सच्चाई के कारण इस उपन्यास में जीवन का वास्तविक चित्र मिलता है। अन्त में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष अर्थात निःस्वार्थ भावना का मार्ग प्रशस्त कर सामाजिकों को एक सूत्र में बांधनें की कोशिश की गई है। इसमें मानव की उदस्त भावनाओं एवं सामाजिक कल्यण की भावना पर विशेष बल दिया गया है।
निष्कर्ष
हिन्दी उपन्यास जगत में प्रेमचन्द का स्थान सर्वाेच्च है। मानवता का व्यापक संदेश, युग का सजीव चित्रण, कथा शिल्प की कलात्मकता, चरित्र-चित्रण की कला, भाषा में लोकभाषा और साहित्यिक सौष्ठव का समन्वय सभी के कारण उपन्यास साहित्य में उनकी कृतियों का महत्वपूर्ण स्थान है।
उन्होनें हिन्दी उपन्यास को नई प्राणधारा प्रदान की है। वे उपन्यास क्षेत्र में मिल के पत्थर है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1. डाॅ. आर. एन. गौड़, राजहंस प्रकाशन मन्दिर, मेरठ।
2. शान्ति स्वरूप गुप्ता रीडर, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
3. डा. महाराजसिंह परिहार, अभय प्रकाशन मन्दिर, 15/256 चारसू दरवाजा, आगरा -3
4. हिन्दी उपन्यास एक नयी दृष्टि, इन्द्रनाथ मदान।
5. गोदान, बारहवाॅ संस्करण पृष्ठ 364।
Received on 18.04.2015
Revised on 08.05.2015
Accepted on 19.05.2015
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Research J. Humanities and Social Sciences. 6(2): April-June, 2015, 106-110