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रेनू सरदाना, मोनिषा चै।धरी
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रेनू सरदाना1] मोनिषा चै।धरी2
1असिस्टेन्ट प्रोफेसर अर्थशास्त्र विभाग राजकीय महाविद्यालय तिगांव, फरीदाबाद (हरियाणा)
2असिस्टेन्ट प्रोफेसर अर्थशास्त्र विभाग राजकीय महाविद्यालय तिगांव, फरीदाबाद (हरियाणा)
*Corresponding Author:
Published In:
Volume - 4,
Issue - 2,
Year - 2013
ABSTRACT:
कृषि वित्त की समस्या वाणिज्य और उद्योग के लिए वित्त की समस्या से भिन्न है। कृषि अपेक्षाकृत असंगठित व्यवसाय हंै। इसकी सफलता या असफलता बहुत कुछ मौसम पर निर्भर करती है। इसके अलावा किसानों द्वारा लिए जाने वाले ऋणों में स्पष्ट रूप से उत्पादक या अनुत्पादक में भेद कर पाना आसान नहीं होता। इसलिए बैंको ने खेती के लिए या उससे संबधित दूसरे कार्यो के लिए ऋण देने में प्रायः दिलचस्पी नहीं दिखाई है। अकालों की पुनरावृति सूखे का प्रकोप प्रायः देश में बना रहता है। जो योजना निर्माताओं के लिए चुनौती है। भारत में कृषिगत अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का एक कारण साख की सुविधाओं का अभाव माना जाता है। प्रायः किसानों को साख सुविधाओं से पृथक और दूर रखा गया है, पूंजी बाजार तथा अन्य वित्तिय संस्थाओं ने वित्त प्रदान करने में कृषि की उपेक्षा की गई है। यद्यपि कृषक वर्ग अपनी वित्तीय स्थिति तथा ईमानदारी के कारण साख बाजार का सहयोग प्राप्त करने का उपयुक्त अधिकारी है, फिर भी उसे आवश्यक साख उपलब्ध नहीं हो पाती।
Cite this article:
रेनू सरदाना, मोनिषा चै।धरी भारत में सहकारी बैंकिग की क्रियाशीलता. Research J. Humanities and Social Sciences. 4(2): January-March, 2013, 250-253
Cite(Electronic):
रेनू सरदाना, मोनिषा चै।धरी भारत में सहकारी बैंकिग की क्रियाशीलता. Research J. Humanities and Social Sciences. 4(2): January-March, 2013, 250-253 Available on: https://www.rjhssonline.com/AbstractView.aspx?PID=2013-4-2-26