ABSTRACT:
मानव जीवन एक गतिशील प्रक्रिया है। सामाजिकता के कारण मनुष्य के मानवीय संबंधों में परिवर्तन होते रहते हैं। यह परिवर्तन मनुष्य जीवन का स्वभाव है। यही परिवर्तन आगे चलकर सामाजिक चेतना में परिवर्तन के कारण बनते हैं। मानव जीवन में आये परिवर्तनों का कारण समाज में भी परिवर्तन होते रहते हैं। इसलिए समाज को एक परिवर्तनशील संगठन भी कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए भी कि समाज की चेतना में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रारंभ से ही देखा जाय तो समाज कई महापुरूषों, विचारों आदि के प्रभाव में पुरानी और गैरजरूरी पड़ गयी चीजों को त्यागता रहता है और नये को ग्रहण करता रहता है। यहाँ हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचारों को इन्हीं संदर्भों की व्याख्या के लिए देखा जा सकता है। समाज के इसी त्याग और ग्रहण को स्पष्ट करते हुए द्विवेदी जी कहते हैं कि ‘यह समाज न जाने कितने ग्रहण और त्याग का परिणाम है।‘ समय-समय पर विचारक, समाजसेवी आते रहे और समाज की चेतना को परिवर्तित करते रहे। भारत में आर्य समाज, ब्रह्म समाज, गांधी, बाबा साहेब अम्बेडकर जैसे आंदोलनों और व्यक्तियों के कारण भारत वर्ष के लोगों के संकीर्ण धार्मिक, सामाजिक मान्यताओं का अंत हुआ। लोगों के सोचने की दिशा परिवर्तित हुई। कई सामाजिक आंदोलनों और प्रगतिशील विचारों के कारण जातियों के सामाजिक स्तरीकरण तथा पदानुक्रम में काफी परिवर्तन हुए। ये सारे परिवर्तन और बदलाव सकारात्मक थे जिससे भारत में संस्कृतिकरण को काफी बल मिला। समय के साथ-साथ विभिन्न पीढ़ियों की सांस्कृतिक आवश्यकताओं और विचारों में भी परिवर्तन होता है। मनुष्य का समाज एक परिवर्तनशील संरचना है। मानवीय आवश्यकताएँ, जीवन-मूल्य, नवीन आविष्कार आदि सामाजिक चेतना का निर्धारण करते हैं। जब-जब इन तत्वों में परिवर्तन होता है तब उसी के साथ समाज और सामाजिक चेतना दोनों में परिवर्तन होता है। मानवीय संबंधों की श्रेणी में उत्पादन संबंध भी आते है। उत्पादन प्रणाली के विभिन्न साधनों के विकास के साथ-साथ सामाजिक एवं ऐतिहासिक घटनाओं का भी विकास होता है। उत्पादन प्रणाली में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं इन्हीं परिवर्तनों के अनुरूप सामाजिक व्यवस्था राजीनैतिक मतों और संस्थाओं, विचारों में परिवर्तन होता है। ‘‘मनुष्य का जीवन मूलतः उत्पादन पर आधारित है, अतः उत्पादन-प्रणाली व प्रक्रिया में परिवर्तन के साथ ही सामाजिक संबंधों, संस्थाओं और विचारों-संवेदनाओं में भी परिवर्तन आना अवश्यम्भावी है। इसी कारण सामाजिक ढाँचे में भी
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नीरज कुमार नामदेव. सामाजिक चेतना की परिवर्तनशीलता. Research J. Humanities and Social Sciences. 6(2): April-June, 2015, 145-148
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नीरज कुमार नामदेव. सामाजिक चेतना की परिवर्तनशीलता. Research J. Humanities and Social Sciences. 6(2): April-June, 2015, 145-148 Available on: https://www.rjhssonline.com/AbstractView.aspx?PID=2015-6-2-13
सन्दर्भ -
1. नन्दकिशोर आचार्य, आधुनिक विचार, पृ0-55
2. रामविलास शर्मा, भारत में अंग्रेजी राज और माक्र्सवाद, भाग-2, पृ0-95
3. नन्दकिशोर आचार्य, आधुनिक विचार, पृ0-58
4. अगस्ट काॅम्ट, समाजशास्त्र: समाजशास्त्र की अवधारणा तथा तीन स्तरों का नियम, पृ0-19
5. यशपाल, माक्र्सवाद, पृ-9
6. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली-10, संपादक-मुकुंद द्विवेदी, पृ0-46
7. यशपाल, माक्र्सवाद, पृ0-11
8. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली-10, संपादक-मुकुंद द्विवेदी, पृ0-24
9. वही, पृ0-25
10. रामविलास शर्मा, भाशा साहित्य और संस्कृति, पृ0-94
11. डाॅ0 रांगेय राघव, समीक्षा और आदर्श, पृ0-43
12. जयशंकर प्रसाद, काव्य कला तथा निबंध, पृ0-16
13. यशपाल, दादा कामरेड, पृ0-5-6