ABSTRACT:
प्रकाशचंद्र गुप्त ने सन् 1953 में अपनी प्रकाशित पुस्तक ‘हिंदी साहित्य में जनवादी परंपरा’ में भक्तिकालीन कवि कबीर के साहित्य से जन अनुभूतियों और अभिव्यक्ति तत्व की मौजूदगी को आरंभ कर प्रेमचंद तक जनवादी परंपरा की खोज की थी। इससे स्पष्ट होता है कि ‘जनवादी साहित्य’ सन् 1982 में स्थापित ‘जनवादी साहित्य संघ’ की स्थापना के पहले भी हिंदी साहित्य में मौजूद था, जैसा कि 1936 ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना के पहले हिंदी साहित्य में प्रगतिशील तत्व मौजूद रहे हैं। जहाँ तक कहानी विद्या कि बात है करें माधव राव सप्रे की ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ (1901 में छत्तीसगढ़ मित्र), गुलेरी की सुखमय जीवन (1911 भारत मित्र), बुद्धु का काँटा (1911 भारत मित्र), तथा उसने कहा था (1915, सरस्वती में प्रकाशित) में जनसामान्य की मनोभावनाओं को चित्रित, अभिव्यक्त किया गया है। हाँ; यह अवश्य है कि प्रेमचंद के काल की तरह भाषा और यथार्थ अभिव्यक्ति का जो परिमार्जित रूप है हम 50 के पहले की कहानियों में नहीं देख पाते हैं या कम मिलता है। एक बात और इस संदर्भ में रेखांकित की जा सकती है और वह है सन् 50 के पहले तक की कहानियों में जनसामान्य की विद्रोही और क्रांतिकारी भावनाएँ नहीं दिखती हैं। भले ही माक्र्सवादी लेखक अपने लेखन को जनसंपृक्त साहित्य बताते रहें हो अथवा जन आंदोलनों में सम्मिलित होते रहे हांे अथवा अपने को जनलेखक होने की घोषणा करते हों वैसा क्रांतिकारी साहित्य नहीं रच पाए जो प्रगतिवादी लेखकों ने लिखा इसलिए प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल यह कहने में सफल हो जाते है कि-‘ काटो काटो काटो साइत और कुसाइत क्या है मारो मारो मारो हँसिया, हिंसा और अहिंसा क्या है’ सच भी यही है भारत विभाजन के वक्त समाज के जो हालात थे उन हालातों की अभिव्यक्ति कहानियों में न होना खटकता है।
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जयपाल सिंह प्रजापति. जनवादी कथावस्तु और मार्कण्डेय. Research J. Humanities and Social Sciences. 2(4): Oct.-Dec., 2011, 209-211.
Cite(Electronic):
जयपाल सिंह प्रजापति. जनवादी कथावस्तु और मार्कण्डेय. Research J. Humanities and Social Sciences. 2(4): Oct.-Dec., 2011, 209-211. Available on: https://www.rjhssonline.com/AbstractView.aspx?PID=2011-2-4-12
संदर्भ ग्रंथ
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