Author(s): Vrinda Sengupta, K.P. Kurrey

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DOI: Not Available

Address: Dr. (Smt.) Vrinda Sengupta1, Dr. K.P. Kurrey1
1Asistant Professor (Sociology), Govt T.C.L..P.G. College, Janjgir
*Corresponding Author

Published In:   Volume - 6,      Issue - 3,     Year - 2015


ABSTRACT:
भारत एक विकासशील देश है देश के सर्वागींण विकास के लिए जन जातियों जिनकी हमारे देश में बरहुल्यता है, जिनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है, के विकास पर ध्यान देना जाना चाहिए। भारत में लगभग 300 (तीन सौ) प्रकार की जनजातियां पाई जाती है, जिनमें भील, गोड़, संथाल आदि प्रमुख जन जाती हैं। जिनकी जन संख्या 40 लाख से भी अधिक है। 1991 की जनगणना के आधार पर भारत में अनुमानतः 6.78 करोड़ आदिवासी निवास करते हैं। जीवन-यापन अधिक व्यवस्थित रुप मे करने के लिए व्यवसाय की खोज में आदिवासी व्यक्तिगत या सामूहिक रुप में अपनी मूल स्थान से किसी दूसरे स्थान पर प्रवास की, जन संख्या में परिवर्तन का तीसरा कारक कहा गया है । प्रथम दो कारक जन्म और मृत्यु दर है। आदिवासी समुदायों का अपनी जमीन व मूल निवास स्थान से गहरा भावनात्मक संबंध रहता है। इसलिए जनजाति प्रवास सामान्य परिस्थितियों में नहीं होता। जनजातिय प्रवास के दो पहलू हो सकता है। (1) वे पहलू जो आदिवासी समूह को बाहर की ओर धकेलते हैं, जैसे सामाजिक, आर्थिक शोषण, भुखमरी, बिमारी, बाढ़ व सूखे जैसी प्राकृतिक विपदाओं आदि। (2) वे पहलू जो आदिवासी समूह को अपनी ओर खींचते हैं जैसे रोजगार के बेहतर अवसर व अधिक मजदूरी जिनके कारण बहुत सी जनजाति प्रवासी बन जाते हैं।


Cite this article:
Vrinda Sengupta, K.P. Kurrey. प्रवासी आदिवासी महिलाओं की समस्याएं एवं समाधान (जिला-जांजगीर चाम्पा के संबंध में). Research J. Humanities and Social Sciences. 6(3):July- September, 2015, 175-177.

Cite(Electronic):
Vrinda Sengupta, K.P. Kurrey. प्रवासी आदिवासी महिलाओं की समस्याएं एवं समाधान (जिला-जांजगीर चाम्पा के संबंध में). Research J. Humanities and Social Sciences. 6(3):July- September, 2015, 175-177.   Available on: https://www.rjhssonline.com/AbstractView.aspx?PID=2015-6-3-2


संदर्भ गृन्थ सूची
सक्सेना, आदसी: श्रम समस्याएं एवं श्रम कल्याण पुस्तक प्रकाशन, निकट कोतवाली, मेरठ 1987,
श्रीवास्तव, प्रदीप: भारत का जनजातीय जीवन , प्रियंका पब्लिकेशन, बिलासपुर 1999 ।

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DOI: 10.5958/2321-5828 


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